घर  से  निकले  हैं  पढ़ने  को
जीवन  के पथ  पर  बढ़ने को
कदम  है अगला आज बढ़ाया
एक रोज शिखर पर चढ़ने को
ना  पहले  सी शामें  होंगी
ना  सुबहा होगी अलसाई
जो वक़्त गँवाया मस्ती में
उसकी होगी अब भरपाई
ना  घर जैसा  खाना होगा
ना  अम्मी तुझे खिलाएगी
उठना होगा घड़ी देख कर
आवाज़ ना तुझे जगाएगी
ना डर होगा अब पापा का
वो कब ऑफिस से आएंगे
बस  तू ना  होगा खाने को
थैले  में  फल  जब लाएंगे
अब  दादा  ना  पुचकारेंगे 
ना  सहलाएँगे  तेरे   गाल
अब  दादी  भी  ना  पूछेगी
कमजोर हो गया मेरा लाल
ना बहना से झड़पें होंगी
ना  कोई उसे  चिढ़ाएगा
घरवालों  के  आगे  अब 
रोकर  कौन  दिखाएगा
कैसे  भाई   को  डांटेगा
हर चीज़ बराबर बांटेगा
ना सांझी अलमारी होगी
जो अपने कपड़े छांटेगा
ना हुड़दंगी महफ़िल होगी
ना  घंटों  होगा  बतियाना
जाने  कब  दोबारा  होगा
उन  यारों  से  मिल  पाना
अब उम्मीदों का बोझा है
जो तुझको पूरी  करनी है
खाली कलम है कल तेरा
स्याही तुझको ही भरनी है
अब वापस जो तू लौटेगा
ना  इन लम्हों  को पाएगा
कुछ रस्ते नये मिलेंगे फिर
जिन पर तू बढ़ता जाएगा
By Amit Mishra
घर से बाहर पढ़ने पर ही घर की क्या अहमियत होती है, उसका पता चलता है। घर-घर ही होता है, उसके जैसे आराम राजगद्दी पर भी बैठने पर नहीं मिल सकता है
ReplyDeleteबहुत अच्छी मर्मस्पर्शी प्रस्तुति