Sunday 27 September 2020

आखेट

कभी कभी ये जीवन एक आखेट की भाँति प्रतीत होता है और मैं ख़ुद को एक असफल आखेटक के रूप में पाता हूँ। मेरी चाहतें, मेरी ख़्वाहिशें, मेरा लक्ष्य एक मृग की भाँति है। एक ऐसा मृग जो दिखाई तो देता है पर जब मैं उसे पकड़ने जाता हूँ तब वो गायब हो जाता है। मैं वर्षों से उसके पीछे भाग रहा हूँ पर आज तक वो मेरे हाथ नही आया।

वो दिखता है, मैं उसके पीछे भागता हूँ। अचानक से कोहरा छा जाता है। कोहरा छटता है, मृग गायब है। मैं फ़िर ढूंढ़ता हूँ, वो फ़िर दिखता है। अचानक से बारिश आती है, मैं पेड़ की ओट में खड़ा हो जाता हूँ। बारिश रुकती है, मृग गायब है। 

मैं फ़िर ढूंढ़ता हूँ, वो फ़िर दिखता है। मैंने सोच लिया है अबकी बार बारिश आए या तूफ़ान, मैं नही रुकने वाला। अब इसे नही जाने दूँगा। वो आगे-आगे भाग रहा है, मैं पीछे-पीछे। मेरे रास्ते में कई सुंदर फ़ूल खिले हैं, कई स्वादिष्ट फ़ल पेड़ों पर लदे हुए हैं, उधर एक प्यारा सा ख़रगोश शायद मेरी तरफ देख रहा है। पर मैं कुछ नही देख रहा। मेरी नज़रें सिर्फ़ और सिर्फ़ उसी मृग पर हैं। वो बस हाथ आने ही वाला है। अचानक मेरे रास्ते में गड्ढा आता है, जिसे मैं देख नही पाता। मैं गिर जाता हूँ, मुझे चोट लगती है, खून निकलता है। मैं घाव साफ करके फ़िर उठता हूँ और देखता हूँ....मृग फ़िर गायब।

मैं थक गया हूँ, निराश भी हूँ, सोचता हूँ क्या मुझे रुक जाना चाहिए? क्या मुझे इस उपवन की सुंदरता का आनंद लेना चाहिए? फ़िर सोचता हूँ कि नहीं मैं रुक नही सकता, मैं तो इंसान हूँ। मैं बिना संतुष्ट हुए कैसे रुक सकता हूँ।

संतुष्टि की चाह इंसान को उम्र भर सिर्फ़ भगाती और थकाती है पर संतुष्टि कभी मिल नही पाती।

अमित 'मौन'

Tuesday 15 September 2020

दूरियाँ

कभी कभी लगता है कि थोड़ी दूरी भी बहुत ज्यादा दूरी होती है। फ़िर लगता है कि दूरी तो दूरी है उसमें थोड़ी और ज्यादा की कोई गुंजाइश नही होती। मन कहता है कि तुम बस जरा सी दूर हो, मैं हाथ बढ़ा कर तुम्हे छूना चाहता हूँ पर मेरे हाथ तुम तक नही पहुँच पाते। तुम बहुत दूर लगने लगती हो, लगता है जैसे मैं तुम तक कभी पहुँच ही नही पाऊंगा।


हमारे बीच एक खाई है जिसे पार नही किया जा सकता, पर मैंने फ़िर भी हार नही मानी है। मैं एक पुल बनाने की कोशिश में लगा हूँ। मैं इतने सालों से पुल बना रहा हूँ पर उस पुल का दूसरा सिरा तुम तक पहुँच नही रहा। शायद मैं अच्छा इंजीनियर नही हूँ या हो सकता है मेरे पुल तैयार करते वक़्त ये खाई और लंबी हो गयी हो।

कुछ दूरियाँ इतनी दूर होती हैं कि कभी तय नही हो पाती।

अमित 'मौन'


PC: GOOGLE


Saturday 12 September 2020

इंतज़ार

कभी कभी लगता है कि अब आगे बढ़ जाना चाहिए। अब यहाँ रुकने का कोई औचित्य नही है। ऐसा कुछ नही है जिसके लिए रुका जाए। मैं गठरी बाँध कर आगे बढ़ने ही वाला होता हूँ कि एक ख़्याल आता है जो कहता है कि अगर तुम वापस आयी और मैं यहाँ ना मिला तो क्या होगा, तुम क्या सोचोगी, कहीं तुम मुझे गलत तो नही समझोगी। कहीं तुम ये ना सोचो कि मैंने इंतज़ार ही नही किया।


सिर्फ़ इतनी सी बात सोचकर मेरे कदम आगे बढ़ ही नही पाते। मेरी आत्मा मेरे शरीर से निकल कर वहीं बैठ जाती है। मेरा शरीर चाह कर भी आगे नही जा पाता। मैं जानता हूँ की इंतज़ार की एक अवधि होती है। एक तय समय के बाद किया गया इंतज़ार पहले निराशा और फ़िर अवसाद में बदल जाता है।

मैं सब समझता हूँ पर फ़िर भी सोचता हूँ कि मेरे इंतज़ार की समय सीमा कौन निर्धारित करेगा? कम से कम इतना हक़ तो मैं अपने पास रख ही सकता हूँ। यही सोचकर मैं हर बार इस अवधि को बढ़ाता चला जाता हूँ। मैं जानता हूँ कि अवधि बढ़ाने के बाद भी एक दिन ऐसा आएगा जब मुझे ही बढ़ना पड़ेगा पर मैं फ़िर से तुम्हारे बारे में सोच लेता हूँ।

मैं जीवन के उस मोड़ पर खड़ा हूँ जहाँ मेरी सोचने की शक्ति, मेरे समझने की क्षमता पर हावी हो चुकी है। मैं कितना कुछ सोच रहा हूँ पर समझने को तैयार नही हूँ।

अमित 'मौन'

अधूरी कविता

इतना कुछ कह कर भी बहुत कुछ है जो बचा रह जाता है क्या है जिसको कहकर लगे बस यही था जो कहना था झगड़े करता हूँ पर शिकायतें बची रह जाती हैं और कवि...