Wednesday 28 August 2019

अधूरापन

मैं अक़्सर सुनता हूँ तुम्हारा ये शिकायती लहजा जब तुम मुझे बताती हो कि तुमने बहुत बार प्रेमियों को अपनी प्रेमिकाओं से ये कहते हुए सुना है कि तुम बिन मैं अधूरा हूँ, तुम मिल जाओ तो पूरा हो जाऊँ और तुम ना मिलो तो जी ना पाऊँ। तुम शायद उम्मीद करती होगी मुझसे भी यही सब सुनने की, और तुम्हारी ये उम्मीद वाजिब भी है।

पर मैं तुमसे बस यही कहता रहता हूँ कि ज़िंदगी कट रही थी तुमसे पहले भी और ज़िंदगी कट जाएगी तुम्हारे बाद भी। ये जीने मरने के वादे, ये कभी ना भूलने की कसमें, ये सब जाने क्यों मुझे बेमानी से लगते हैं।

पर ऐसा नही है कि मुझे तुमसे प्यार नही है। अगर प्यार नापने का कोई पैमाना होता है तो मैं तुम्हें यकीन दिलाता हूँ कि उस पैमाने की सबसे ऊँची वाली लकीर तक पहुँचने वालों की फ़ेहरिश्त में तुम्हें मेरा नाम जरूर मिलेगा।

अगर आम प्रचलित भाषा में कहूँ तो मुझे भी तुमसे मिलना है बिछड़ना नही है, मुझे भी तुमसे दूर नही रहना तुम्हारे बहुत करीब रहना है, मुझे भी अकेले रोना नही तुम्हारे साथ हँसना है, मुझे भी तड़प के मरना नही तुम्हारे साथ खुल के जीना है।

मुझे नही पता कि मैं तुम्हारे बिना कैसे और कितना जी पाऊंगा पर इतना बता दूँ कि जब तुमसे पहली बार मिला था, तभी तुम्हारा एक हिस्सा अपने साथ ले आया था। क्योंकि उसके बाद तुम हमेशा के लिए मेरे ज़हन में समा गयी थी। हर वक़्त तुम्हारा ख़्याल, तुमसे पहली बार मिलने की वो ख़ुशी, तुम्हारी आँखें, तुम्हारा चेहरा, तुम्हारी बातें, वो सब हमेशा मेरे साथ ही रहे।

पता नही क्यों ऐसा होता है कि कोई किसी से कुछ वक़्त ना मिले तो अधूरा हो जाता है, बल्कि मुझे तो लगता है तुमसे पहली बार मिलके ही मैं पूरा हो गया और साथ साथ तुमको भी ले आया। यानि की मैं ख़ुद से भी ज्यादा हो गया।

अब मैं जब भी तुमसे मिलता हूँ तो थोड़ा सा और तुम्हें अपने साथ ले आता हूँ। अब मुझे अधूरा होने का कोई लक्षण ख़ुद में दिखायी नही देता।

मैं सोचता हूँ शायद तुम्हारे साथ भी ऐसा होता होगा। शायद तुम भी थोड़ा सा मुझे अपने साथ ले जाती होगी। पर मुझे ये कभी महसूस नही हुआ कि मैं अधूरा हूँ, और शायद तुम्हे भी कुछ ऐसा एहसास नही होता होगा।

मुझे अब भी ऐसा लगता है कि प्रेम होना ही अपने आप में पूरा हो जाना है। जब प्रेम नही था तब तक हम पूर्ण नही थे। अब हमारे साथ प्रेम है तो हम सम्पूर्ण हैं।

इन सभी बातों से परे जो एक बात मैं तुम्हे कहना चाहता हूँ वो ये कि मैं तुम्हारे साथ हूँ या नही, तुम्हारे पास हूँ या नही, मैं कभी भी अधूरा नही रहूँगा। क्योंकि तुम पहले ही मुझमें बस कर मुझे पूरा कर चुकी हो।

या यूँ कहूँ मैं पूरे से भी ज्यादा हो चुका हूँ...

अमित 'मौन'
 

Saturday 24 August 2019

शब्दों की माला

मैं  चाहूँ  तुझे  ही, ये  कैसे  बताऊँ
जो पढ़ के ना समझे तो कैसे जताऊँ

देखूँ तुझे तो मैं, ख़ुद ही को भूलूँ
यूँ  चेहरे से नज़रें  मैं कैसे हटाऊँ

ना दूरी  कोई, रह गयी  दरमियाँ है
है सूरत बसी दिल में कैसे दिखाऊँ

आँखें  जो  मूंदूँ, तू  ही  सामने हो
मैं ख़्वाबों में अपने तुझे ढूँढ़ लाऊँ

सोहबत की चाहत, बड़ा कोसती है
ये  दूरी  है  दुश्मन  ये  कैसे  मिटाऊँ

ये शब्दों की माला, तुझे करके अर्पण
कविता  में अपनी  मैं तुझको सजाऊँ

अमित 'मौन'

Sunday 18 August 2019

बाकी है एक उम्मीद

यूँ ही कल झाड़ पोंछ में ज़हन की
वक़्त की दराज़ से निकल आये
कुछ ख़्याल पुराने
जो कहने थे उनसे
जो मौजूद नही थे
सुनने के लिए....

कुछ ख़त
जो लिखे गए थे
उनकी याद में
जिनका पता मालूम न था...

वो बातें
जिनके जवाब के इंतज़ार में
एक उम्र गुजरी है तन्हाई में...

आज भी संभाले रखी है
वो गुफ़्तगू की ख़्वाहिश
जो करनी थी उनसे
किसी चाँदनी रात में
खुले आसमां के नीचे
जब तारों की टिमटिमाती रोशनी
लबों पे यूँ पड़ती मानों
बातों से गिरते हों मोती कई....

और समेट लेता मैं
उस ख़ज़ाने को उम्र भर के लिए
और देखा करता हर रोज़
मोतियों में तुम्हारे अक़्स को...

ख़ैर वो मोती ना सही
पर वो ख़्याल अभी भी सहेज रखें हैं
क्योंकि ज़िंदगी बाकी है अभी
और बाकी है एक उम्मीद...

अमित 'मौन'

Sunday 11 August 2019

प्रेम और प्रकृति

प्रेम एक प्राकृतिक प्रक्रिया है।

प्रेम होना ठीक वैसा ही है जैसे पेड़ों में स्वयं पत्ते लगना, कलियों का स्वयं फूलों में परिवर्तित होना और फलों का स्वयं ही पक कर मीठा हो जाना।

क्योंकि प्रेम एक प्राकृतिक प्रक्रिया है इसलिए प्रेमी प्रेम में पड़कर स्वयं ही प्रकृति की तरफ़ आकर्षित हो जाते हैं। उन्हें अच्छा लगता है प्रकृति का हर वो क्रिया कलाप जिसमें मिलन का सुख समाया हो। फ़िर चाहे वो आसमान से कूदकर आती बारिश का जमीन से मिलना हो या फ़िर मीलों दूर से भागकर आती हुई नदी का समुद्र से मिलना हो। हर शाम धरती की आग़ोश में समाता सूरज भी मिलन का सुख देता है और चाँद का रात्री में उस काले आसमान के साथ खुशियाँ मनाना भी मिलन का संदेश देता प्रतीत होता है।

पर हर मानवीय प्रेम कहानी की तरह प्रकृति में भी बिछड़ने की ढेरों दास्तान समाहित है। बिछड़ना जैसे पर्वत का नदी से, बारिश का बादल से और पत्तों का पेड़ से बिछड़ जाना।

पर इन सब में जो सबसे अच्छी बात है वो ये कि मिलने और बिछड़ने के इस घटनाक्रमों के बाद भी प्रकृति अपना दायित्व कभी नही भूलती। ये प्रकृति कभी भी मिलने के सुख में उन्मादी होकर ख़ुद के कर्तव्यों को नही भूलती और ना ही कभी बिछड़ने के दर्द में अपने दायित्वों से मुँह मोड़ती है।

क्या हो अगर ये प्रकृति भी अपनी भावनाओं के अनुरूप व्यवहार करने लगे?? तय है कि फ़िर विनाश का क्षण ज्यादा दूर नही होगा।

इस बात से तो हम सभी सहमत हैं कि प्रेम हमें प्रकृति के करीब ले आता है और प्रकृति के करीब आकर हम इतना तो सीख ही सकते हैं कि किसी भी परिस्थिति में हमें अपने दायित्वों से, अपने कर्तव्यों से मुँह नही मोड़ना चाहिए। अन्यथा हम स्वयं का या स्वयं से जुड़े लोगों का ही अहित करेंगे और प्रेम कभी भी किसी का अहित नही चाहता क्योंकि प्रेम प्राकृतिक है भौतिक नहीं।

अंततः हम इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि:

मिलना और बिछड़ना होगा, जग की यही कहानी है
कौन रहेगा किसको जाना, तय करना बेइमानी है
क्षणभंगुर इंसानी जीवन, कोई पक्का ठौर नही
मोहपाश की माया में यूँ, खो जाना नादानी है

अमित 'मौन'

Sunday 4 August 2019

सफ़र

हम सभी अक़्सर बस या रेल से सफ़र करते हैं और हर लंबें सफर के रास्ते में कुछ ऐसी जगहें आती हैं या दिखती हैं जब लगता है कि देखो कितनी खूबसूरत जगह है, कितने प्यारे नज़ारे हैं। काश यहीं रूक जाते या काश यहाँ थोड़ा समय बिता सकते।

पर चाह कर भी हम वहाँ नही रुक पाते और देखते रहते हैं  अपनी रेल या बस की खिड़कियों से उन नज़ारों को भागते हुए। जितनी तेज हमारी गाड़ी की चाल होती है उतनी ही तेजी से वो नज़ारा हमारी आँखों के सामने से ओझल होता चला जाता है।

हम सोचते हैं कि कितनी जल्दी ख़त्म हो गया ये नज़ारा, कितना अच्छा होता अगर थोड़ी देर और दिखता ये सब।

पर सब कुछ जानते हुए भी हम ये नही मानते की वो दृश्य कहीं नही गया वो अभी भी वहीं है जहाँ हमने उसे देखा था। भाग तो हम रहे हैं उस दृश्य से दूर, भागने की जल्दी हमें है क्योंकि हमें कहीं और पहुँचना है।

जीवन के सफ़र में भी यही होता है। हम भागते चले जाते हैं अपनी उस मंज़िल की ओर जो हर बार करीब होकर फ़िर अपनी दूरी बढ़ा लेती है और हम ताउम्र उसका पीछा करते हुए बढ़ते जाते हैं।

रास्ते में मिलते हैं हमें रिश्ते, नाते, प्यार, लगाव, आकर्षण अपनापन और कुछ खास पल जब हमें लगता है कि काश यहाँ रुक पाता या काश इसके साथ और समय व्यतीत करता, मग़र भागने की जल्दबाज़ी में हम वो सब छोड़ आते हैं और फ़िर यही सोचते हैं कि ये सब कितनी जल्दी ख़त्म हो गया।

पर सच तो ये है कि ख़्वाहिशों, जरूरतों और महत्वाकांक्षाओं के वशीभूत होकर हम स्वयं समय के साथ आगे बढ़ आये हैं कुछ ख़ूबसूरत लम्हों को पीछे छोड़कर।

वो लम्हे अब भी समय के उस चक्र में ठीक वैसे ही हैं जैसा उन्हें छोड़कर हम आगे बढ़ गए थे...

अमित 'मौन'

अधूरी कविता

इतना कुछ कह कर भी बहुत कुछ है जो बचा रह जाता है क्या है जिसको कहकर लगे बस यही था जो कहना था झगड़े करता हूँ पर शिकायतें बची रह जाती हैं और कवि...