Thursday 31 October 2019

अधूरी कविता

किसी दिन सहसा ही
एक अंधेरे कमरे में
मौन हो जाएगी
मेरी आवाज
रुक जाएगी मेरी सांसें
मेरी देह परिवर्तित हो जाएगी
एक मृत शरीर में
मेरी आत्मा को
निष्काषित कर दिया जाएगा
इस नश्वर शरीर से

जब देह विलीन हो जाएगी
इसी मिट्टी में
और आत्मा कूच कर जाएगी
अपने लोक की ओर

तब कहीं नही बचूँगा मैं
और नही रहेगा
मेरा कोई निशान

पर मेरा अस्तित्व
बचा रह जाएगा
मेरी कविताओं में
रह जाएगी मेरी प्रेम कविता
जिसे हर प्रेमी सुनाएगा
अपनी प्रेयसी को

सभी देवदास
चीख चीख कर पढ़ेंगे
मेरी विरह की कविता

और हौसला देंगी
मेरी कविताएं
जिनमें जज़्बा होगा
कुछ कर गुजरने का

पर कोई नही पढ़ेगा
मेरी आख़िरी कविता
मेरे सिरहाने पड़ी
मेरी अधूरी कविता

कविता जिसमें
नही होगा कोई रस
कविता जिसमें होगा
मेरा सच

मेरी तरह ही शापित
जन्म लेते ही मार दी जाएगी
मेरे साथ मेरी कविता

अमित 'मौन'

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Tuesday 22 October 2019

प्रियतम

इतनी उत्तेजित होती हो
सहसा ही सुन के नाम मेरा
यानी कि विह्वल तुम भी हो
छीना है जो आराम मेरा

जब साँझ ढले जब चाँद चले
उस पल में प्रियतम आ जाना
मैं गति हृदय की रोकूँगा
अधरों से पान करा जाना

जब पंछी क्रीड़ा करते हों
और पवन में ख़ुशबू फैली हो
जब दिन करवट ले सो जाए
फ़िर काली रात अकेली हो

जब शोर नही सन्नाटा हो
फ़िर जुगनू दिए जलाएंगे
जब पुष्प बिछे हों राहों में
यानी कि प्रियतम आएंगे

जब हार भुजा का डल जाए
प्रियतम थोड़ा सकुचा जाना
जिस प्रहर प्रेम की बातें हों
तुम विदा को ना अकुला जाना

जब घड़ी मिलन की आ जाए
तुम पूर्ण समर्पण कर देना
संवाद नयन से होगा जब
तुम प्रेम हृदय में भर लेना

अमित 'मौन'



Image Source-GOOGLE

Friday 18 October 2019

था कौन मेरा? क्या अपना था?

शिथिल पड़ी इच्छाओं को
सहसा ही कोई उछाल गया
था कौन मेरा? क्या अपना था?
क्यों अपनी आदत डाल गया

बंजर बस्ती सूनी गलियां
बरसों से बरखा को तरसी
डेरा डाले पतझड़ बैठा
ना बूंदें सावन में बरसी
आँगन की सूखी तुलसी में
क्यों फ़िर से जल वो डाल गया

था कौन मेरा? क्या अपना था?
क्यों अपनी आदत डाल गया

ना कोई रोशनी दाख़िल हो
अंधेरे कमरों के भीतर
ना चिड़िया भी आना चाहे
जिस घर में रहते हो तीतर
क्यों बेरंगी दीवारों को फ़िर
रंग के ऐसे लाल गया

था कौन मेरा? क्या अपना था?
क्यों अपनी आदत डाल गया

सपनों की ऊँची दीवारें
वो जाने कैसे लांघ गया
अब क्यों इस दिल के मंदिर में
आशा की घंटी बांध गया
ग़र आया था मेरा होने
क्यों अपने रंग में ढाल गया

था कौन मेरा? क्या अपना था?
क्यों अपनी आदत डाल गया

क्यों अपनी आदत डाल गया....

अमित 'मौन'

Monday 14 October 2019

अगली कविता

अगली पूर्णिमा को जब चाँद अपने पूरे रुआब में आसमान पर बैठा इतरा रहा होगा और टिमटिमाते तारे उसके सम्मान में ख़ुद को बिछा चुके होंगे। 

रात का वो पहर जब ठंडी हवाएं आसमान को मदहोश कर रही होंगी और फ़िर नशे में डूबे बादल समंदर से मिलने को दौड़ लगा चुके होंगे।

ठीक उसी पहर हाथों में कलम और डॉयरी लिए हुए मैं छत पर आऊंगा और तुम्हारे बनाए हुए दिए से उजाला कर दूंगा। 

तुम दबे पाँव छत पर आना फिर एक ठंडी साँस लेना। और हाँ, उन झुमकों को पहनना मत भूलना जिन्हें तुम प्यार की निशानी कहकर अपनी लाल चुनरी में लपेट कर रखती हो।

बलखाती हवाओं के बीच जब तुम मेहंदी लगे हाथों से अपनी लटों को कान के ऊपर फंसाओगी और मुझसे नज़रें मिलाते हुए बेवजह शर्माने का अभिनय करोगी। 

ठीक उसी पल मैं लिख डालूंगा अपनी अगली कविता।

मैं तुम्हे यकीन दिलाता हूँ कि उस पल में लिखी हुई कविता के बाद तुम संसार की सर्वश्रेष्ठ प्रेयसी कहलाओगी।

पर मैं हमेशा की तरह उसके बाद भी कोशिश करता रहूँगा तुम पर रची जाने जाने वाली सबसे सुंदर कविता को लिखने की.....

क्योंकि जब तक पृथ्वी पर मनुष्य का अस्तित्व रहेगा तब तक लिखी जाती रहेंगी प्रेम और प्रेयसी पर कविताएं।

अमित 'मौन'
   

Wednesday 9 October 2019

ये वादा है लौटूँगा

ना होना किसी का, जब किसी का हो लेना
सीखा है तुमसे ही , कैसे किसी का हो लेना
ये वादा है लौटूँगा, फिर मैं अगले जन्म
रखना सिर मेरे काँधे, और खुल के रो लेना

करो ये वादा मुझसे, ख़ुद को ना सज़ा दोगी
पहन के झुमके, पायल, ख़ुद को सजा लोगी
बिखरी जुल्फ़ों को अपनी, बारिश में अबकी धो लेना
रखना सिर मेरे काँधे, और खुल के रो लेना

तकोगी राह मेरी, आँखों में काजल होगा
नैनों से बातें होंगी, दिल भी पागल होगा
बाहों में सिमटना, और ख़ुद को खो देना
रखना सिर मेरे काँधे, और खुल के रो लेना

बातें भी होंगी बेवज़ह, बेवजह झड़पे होंगी
वक़्त आएगा वही, उंगलियाँ सिर पे होंगी
थकी हारी वहीं, गोदी में मेरी सो लेना
रखना सिर मेरे काँधे, और खुल के रो लेना

ये वादा है मैं लौटूँगा, तुम फिर से मेरी हो लेना
रखना सिर मेरे काँधे, और खुल के रो लेना

अमित 'मौन'

Tuesday 1 October 2019

युद्ध

पृथ्वी पर आधिपत्य स्थापित करने के लिए सदियों से मनुष्य और प्रकृति में युद्ध होता आ रहा है

मनुष्य के हथियार हैं आरी, कुल्हाड़ी और बड़ी बड़ी मशीनें। जबकि प्रकृति के पास हैं बाढ़, तूफ़ान, भूकंप और ज्वालामुखी।

जब प्रकृति सो रही होती है तब मनुष्य बड़ी चालाकी से कुछ हिस्से पर कब्ज़ा कर लेता है और वहाँ घर रूपी तंबू गाड़ देता है।

फिर अचानक प्रकृति की आँखें खुलती है और वो किसी और हिस्से पर हमला कर वहाँ के तंबू उखाड़ देती है।

अभी तक हुए युद्ध में मनुष्य के हिस्से सफलता अधिक आयी है पर फिर भी प्रकृति का पलड़ा भारी है क्योंकि मनुष्य जानता है कि जब वो जागेगी तब बहुत कुछ दोबारा हासिल कर लेगी।

अमित 'मौन'

अधूरी कविता

इतना कुछ कह कर भी बहुत कुछ है जो बचा रह जाता है क्या है जिसको कहकर लगे बस यही था जो कहना था झगड़े करता हूँ पर शिकायतें बची रह जाती हैं और कवि...