Tuesday 19 November 2019

असफल प्रेमी

प्रेम में सफ़ल ना हो सके अनगिनत प्रेमियों से परे मैं तुम्हें ना पाकर भी कभी हताश नही हुआ।

हज़ारों दार्शनिकों द्वारा कही गयी एक बात सदैव मेरे मस्तिष्क में आसन लगा कर विराजमान रही, जिसमें कहा गया कि 'हर घटना के दो पहलू होते हैं पहला सकारात्मक और दूसरा नकारात्मक'। अब ये आपके ऊपर है कि आप कौन से पहलू को ज़्यादा तवज्जो देते हैं।

सभी हताश प्रेमियों से मैंने सुना कि उन्होंने सिर्फ़ प्रेम किया और प्रेम दिया, बदले में उन्हें प्रेम नही मिला। उन सबके उलट मेरी राय ये रही कि प्रेम ना ही किया जा सकता है और ना ही लिया या दिया जा सकता है।

प्रेम एक अनुभूति है जो स्वयं के भीतर से उत्पन्न होती है । जब तक आपके भीतर वो अनुभूति जन्म लेती रहेगी आप ख़ुश रहेंगे और जैसे जैसे उस अनुभूति की उत्पादन क्षमता कम होती रहेगी वैसे वैसे आपकी मुश्किलें बढ़ती रहेंगी।

इसके अलावा मुझे अपनी असफ़लता की कोई वज़ह नही मिली। फ़िर भी किसी के कारण पूछने पर मेरा चुप रहना मुझे अवसादग्रस्त प्रेमियों की श्रेणी में खड़ा कर सकता है ये सोचकर मैंने बेवज़ह ही कुछ वज़हें बना ली।

मसलन एक दूसरे को देख कर हमारा स्वतः ही खिंचे ना चले आना इस बात का प्रमाण था कि हमारी चुम्बकीय शक्ति क्षीण हो चुकी है।

एक दूसरे के हाथों में हाथ रखने के पश्चात भी सिहरन या कंपन ना होना इस बात का इशारा था कि हमारे भीतर की विद्युतीय तरंगों ने दौड़ना बंद कर दिया है।

और तो और तुम्हारे घने लंबे बालों से विद्रोह कर बाहर झाँकती तुम्हारी लटों को कानों के पीछे धकेलते हुए मेरी उँगलियों का तुम्हारे गर्दन और कंधों का सफ़र तय करते हुए पीठ पर गिरने का प्रयास भी ना करना इस बात का पुख़्ता प्रमाण था कि हमारा प्रेम ब्रम्हांड के उस ग्रह पर पहुँच गया था जहाँ गुरुत्वाकर्षण अपनी अंतिम साँसे ले चुका था।

दुनिया के लिए इन वजहों को तलाशने के बाद भी मुझे कभी अपने असफल प्रेमी बनने का कारण जानने में कोई रुचि नही रही क्योंकि मैंने उस सकारात्मक पहलू को जान लिया जिसमें ये सुकून था कि निर्जीव रिश्ते को निभाने के बजाय सजीवता का परिचय देते हुए अपनी अनुभूति को प्राथमिकता दी जाए।

और जहाँ अनुभूति नही वहाँ प्रेम नही।।

अमित 'मौन'.


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Monday 11 November 2019

दूरियाँ

तुम्हारी गहरी आँखों से टकराना अभी भी मेरी शर्मीली आँखें झेल नही पाती और प्रत्युत्तर में मेरी पलकें झुक कर तुम्हारे विजयी होने का संदेशा देती हैं।

तुम्हारी आवाज़ आज भी मेरे कानों में गुदगुदी करते हुए मेरे मस्तिष्क में प्रवेश करती है और मेरी सोच को तुम्हारे अधीन कर देती है।

तुम्हारा हँसना अब भी मेरे लिए सबसे कारगर दवा का काम करता है जिसे देखने मात्र से ही मेरे सारे दुःख दर्द हवा में काफ़ूर हो जाते हैं।

सुबह सुबह माँ के हाथों से बनी चाय की ख़ुशबू लेते हुए उठने से लेकर रात को चूमते हुए गुड़ नाईट बोलने तक ये फ़ोन मुझे तुमसे मीलों दूर होने का एहसास नही होने देता।

आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस की इस दुनिया में फ़ोन और उसके बाद हुआ इंटरनेट का आविष्कार मानो विज्ञान की सबसे सुंदर उपलब्धि है।

शारीरिक रूप से तुमसे इतनी दूर रहकर भी मानसिक और आत्मिक रूप से मेरा तुमसे जुड़ा रहना हमसे ज़्यादा उस दार्शनिक को सुकून देता है जिसने पहली बार कहा था कि
''प्रेम सभी सीमाओं से परे होता है और प्रेमियों के लिए दूरी कभी बाधा नही बन सकती''।

ना मैं पहला हूँ और ना मैं आख़िरी जिसने दूरियों को कभी प्यार पर हावी नही होने दिया। पर मैं वो खुशनसीब जरूर हूँ जिसे साथी के रूप में तुम मिली और जिसके कारण ये 'Long Distance Relationship' भी 'Closest to my Heart' बना रहा।

अमित 'मौन'


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Monday 4 November 2019

रण में कूद पड़े नारायण

हम सभी जानते हैं कि महाभारत के युद्ध में पांडवों के साथ सम्मिलित होते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने वचन दिया था कि वो युद्ध में शस्त्र नही उठाएंगे परंतु युद्ध के मध्य एक ऐसा क्षण भी आया था जब कृष्ण को अपना वचन भूलकर शस्त्र उठाने के लिए विवश होना पड़ा था।

कृष्ण के बहुत समझाने पर भी अर्जुन मोहवश अपने कौरव रूपी संबंधियों पर पूरी शक्ति से प्रहार नही कर पा रहे थे। वहीं दूसरी तरफ़ भीष्म पितामह अपनी पूरी क्षमता से प्रहार करते हुए पांडव सेना का विनाश कर रहे थे। और जिस गति से पांडव सेना कम हो रही थी अगर वो चलता रहता तो जल्दी ही कौरव विजयी हो जाते।

श्रीकृष्ण से ये देखा नही गया और वो सुदर्शन लेकर स्वयं ही पितामह को मारने के लिए दौड़ पड़े।

उसी घटना को सरल शब्दों में आप तक पहुँचाने की कोशिश है ये रचना:


दिवस तीसरा युद्ध का आया
घोर तिमिर था मन में छाया
देख पितामह काल रूप में
कोई भी योद्धा टिक ना पाया

शिथिल पड़ी अर्जुन की इच्छा
मोह से पीछा छूट ना पाया
गांडीव की गर्जन अब तक रण में
कोई भी शत्रु सुन ना पाया

देख दशा पांडव सेना की
क्रोध कृष्ण का बाहर आया
कौन करेगा धर्म की रक्षा
जो पांडव मैं बचा ना पाया

कूद पड़े सहसा ही रथ से
चक्र सुदर्शन पास बुलाया
देखा क्रोधित रूप प्रभु का
भीषण भय कौरव में छाया
 
देख हाथ में चक्र प्रभु के
दुर्योधन शकुनि अकुलाए
पड़े चरण हैं कृष्ण के रण में
मन में सोच भीष्म मुस्काए

नतमस्तक हो जोड़ के कर को
बात हृदय की भीष्म बताए
सफ़ल हुआ है योद्धा होना
प्रभु स्वयं जो युद्ध को आए

सहसा भान हुआ अर्जुन को
प्रभु वचन को तोड़ रहे हैं
लाज बचाने पांडव कुल की
कृष्ण युद्ध को दौड़ रहे हैं

मनोदशा जो वश में होती
ना खोता में इतने साथी
जो मैं धर्म निभाता अपना
ये नौबत ना रण में आती
 
चरण पकड़ अर्जुन फिर बोले
क्षमा मुझे कर दो हे केशव
वचन सखा देता है तुमको
रखूँगा मैं कुल का गौरव

शपथ मुझे इस माटी की है
पूर्ण शक्ति से युद्ध करूँगा
विजय पताका फहराने तक
युद्ध भूमि से नही हटूँगा
 
सुने वचन अर्जुन के माधव
आलिंगन कर हृदय लगाए
संग अपने माधव को लेकर
अर्जुन वापस रथ पर आए

पश्चात हुआ जो युद्ध भयंकर
कोई भी कौरव बच ना पाया
आड़ वचन की प्रभु ने लेकर
धर्म बचाया रच कर माया

अमित 'मौन'


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अधूरी कविता

इतना कुछ कह कर भी बहुत कुछ है जो बचा रह जाता है क्या है जिसको कहकर लगे बस यही था जो कहना था झगड़े करता हूँ पर शिकायतें बची रह जाती हैं और कवि...