Wednesday 27 June 2018

जीने का फ़लसफ़ा..

बेख़ुदी में अपनी एक अलग ही सुकूँ आया है
दिल ने आज सारे रंज-ओ-ग़म को भुलाया है
क़िरदारों के पीछे  असली चेहरे देख लिये
वक़्त से पहले जो मंच का परदा हटाया है

जो हाथ बढ़ते थे कभी जाम पिलाने को
साकी में उसी ने ज़हर का घूँट मिलाया है

कसमें  यारी की  हर दफ़ा  यूँ ही  खाते रहे
जरा ग़ौर से देखो मुझे रक़ीबों ने बचाया है

रंगीन  शामों  का  जिनकी  चाँद  गवाह  था
उन महफ़िलों में आज एक सन्नाटा छाया है
वो   मग़रूर   जाने  क्यों  ग़ुरूर  कर  बैठे
वक़्त ने गरेबान पकड़ आईना दिखाया है

तू  'मौन'  की  मानिंद  बस  सब्र का साथ रख
गुज़रती उम्र ने जीने का फ़लसफ़ा सिखाया है

Friday 22 June 2018

बिखरा आशियाना...

रिश्तों को  इस तरह  कोई बिगाड़ता नही है
अपना ही आशियाना कोई उजाड़ता नही है
आइना  घर का  उदास रहा करता है  अब
तेरे बाद उसकी ओर कोई निहारता नही है
आँगन की तुलसी भी दूब से  घिर  गई  है
उन गमलों से घास कोई उखाड़ता नही है

चौखट  से  वापस  मैं  लौटता  नही  हूँ
कोई पीछे से अब मुझे पुकारता नही है
तेरे  बिन  ये  घर  अब  घर  नही  लगता
बिखरा है हर कोना कोई संवारता नही है
'मौन'  रहकर  जाने  क्या  सोचा  करता  हूँ
तेरे ख़्यालों से बाहर कोई निकालता नही है

Monday 18 June 2018

तुम और चाय...भाग-2

पिछला भाग पढ़ने के लिये इस लिंक पर:
https://poetmishraji.blogspot.com/2018/03/blog-post_24.html 

सुनी मैंने तुम्हारी चाय और वो बातें...
हाँ  मुझे  तो  सब  कुछ  याद है
वो  चाय  और  अपनी  वो  सारी  बातें
पर शायद तुम कुछ भूल रहे हो
चाय के बहाने अपनी हसीन मुलाकातें...

कैसे  भूल  सकती  हूँ   उन  पलों  को
उन  लम्हों  को  जिनमें  थी  चाय की  मिठास
हाथ में चाय लिये एक दूजे को तकना
आज भी सुकून देता है उस प्यार का एहसास.....

तुमने  कई  बार  पूछा  था
हम  क्यों सिर्फ  चाय पे मिलते हैं
बगल में कॉफी शॉप भी है
हम क्यों नही कभी वहाँ चलते हैं...

गर्म  चाय  की  चुस्कियाँ  लेते  हुए
मैं अक्सर  तुम्हारी बात  टाल जाती थी
तुम हर बार नई जगह तलाशते थे
पर मैं चाय की उसी दुकान पे आती थी..

माना तुम्हारी  बेकरारी ज्यादा थी
तुम  समय से  पहले  पहुँच  जाते थे
फिर अकेले  बैठ के घड़ी निहारते
जाने क्यों बेवजह मुझपे चिल्लाते थे...

वो बिस्कुट की बहस को कैसे भूल गये
मैं अपना गुड डे और तुम मोनैको मँगाते थे
हँसी आती थी तुम्हारा अंदाज़ देखकर
तुम बच्चों की तरह चाय में डुबा के खाते थे...

हाँ मिलने की जल्दी मुझे भी होती थी
कुछ तलब चाय की  कुछ नशा तुम्हारा था
मैं  चीनी सी मीठी तुम अदरक से तेज
एक कड़क चाय के जैसा रिश्ता हमारा था...

पुरानी  बातों  का  जिक्र  जो  कर ही  लिया है
तो चलो एक बार फिर उन्ही लम्हों को जीते हैं
मैं लाल लिबास में आऊँगी तुम जल्दी पहुँचना
चलो फिर से  दोनों उसी दुकान पे चाय पीते हैं...

उन पुरानी यादों को उन पलों को एक बार फिर से जियेंगे
कुछ नया करते हुए आज एक ही कप में दोनों चाय पियेंगे.

तो फिर चलें चाय पीने....☕️☕️

Thursday 14 June 2018

क्यों यहाँ सफाई देता है..

इस वीराने में  भी शोर  सुनाई  देता है
बिन बारिश के ही मोर दिखाई देता है
बौराया पगलाया सा  यूँ ही  फिरता हूँ
अब यहाँ मुझे हर शख़्स दुहाई देता है
ना जाने कैसे मर्ज़ ने घेरा है मुझको
हक़ीम मेरा  नित नयी दवाई देता है
ज़ुर्म मेरे की ख़बर नही है ज़ालिम को
रोज मुक़दमे में अंजान गवाही देता है
झूठी  इस पंचायत  से अब  क्या डरना
तू 'मौन' ही रह क्यों यहाँ सफाई देता है

Monday 11 June 2018

बेचैनी...

आधी रात का समय था अचानक रवि की आँख खुल गयी, पास में पड़े मोबाइल को उठाया और देखा तो रात के 12.30 हो रहे थे.

वो क्या था आज रवि दफ़्तर से घर जल्दी आ गया था और खाना भी जल्दी खा लिया था, आज कुछ ज्यादा थक गया था तो बिस्तर पे जाते ही नींद आ गयी थी.

खैर अब आँख खुल ही गयी थी तो उसने अपना हाथ बिस्तर पे यहाँ वहाँ घुमाया उसका हाथ शायद बिस्तर पे किसी को ढूंढ़ रहा था पर अँधेरा होने की वजह से कुछ दिख नही रहा था, वो झट से उठा और लाइट ऑन की.

उजाला होते ही वो चौंक गया उसकी आँखें खुली रह गयी वो हैरान था बिस्तर पे कोई नही था! ये क्या वो तो हमेशा साथ रहती थी रात में कभी भी उठो वो वहीँ बगल में रहती थी पर आज क्या हुआ वो नही थी.

वो घबरा गया, झट कमरे से बाहर आया और उसे बरामदे में खोजने लगा पर वो नही दिखी, हालाँकि बाथरूम का दरवाजा खुला था और अंदर कोई नही था फिर भी तसल्ली करने को वहाँ झाँका पर कोई होता तो दिखता ना..

रवि और ज्यादा घबरा गया पसीना उसके चेहरे से होता हुआ गले और नीचे तक जाने लगा था, वो भागा हुआ छत पे गया पर वो वहां भी नही दिखी अब रवि को अजीब सी घबराहट हो रही थी उसे समझ नही आ रहा था कि क्या करे..

उसने कुछ और सोचा और फिर मेन गेट खोल के बाहर देखा, स्याह काली रात थी पूरी गली सुनसान थी, गली के एक दो आवारा कुत्ते दिख रहे थे जो उस इकलौती स्ट्रीट लाइट के नीचे जीभ लटका के बैठे हुए थे शायद वही थे जो जाग रहे थे बाकी सभी नींद की गिरफ़्त में कैद अपने अपने घरों में सो रहे थे..

रवि कुछ सोचते हुए बाहर निकला और चलता चलता काफी दूर तक गया पर कोई नही दिखा वो किसी से कुछ पूछता भी कैसे ? गुप्ता जी की दुकान जो देर रात तक खुली रहती थी वो भी बंद हो गयी थी, दूर दूर तक कोई नही दिख रहा था.

रवि की बेचैनी बढ़ती जा रही थी.. उसने कुछ सोचा और फिर सीधा मेन रोड की तरफ भागा.. शायद वहां मिल जाये.. अब वो मेन रोड पे खड़ा था उसकी साँसें फूल रही थी.. पर अब किस तरफ जाये कहाँ ढूंढ़े उसे?

उसे दूर कुछ लोग खड़े दिखाई दिये, वो चलता गया उनके पास पहुँचा,  कुछ पूछा पर किसी ने कुछ नही बताया वो और आगे बढ़ा, फुटपाथ पर कुछ लोग सो रहे थे पर उनमे से एक जाग रहा था रवि ने उससे भी पूछा पर उसने भी ना में गर्दन हिला दी..

रवि का सब्र उसका साथ छोड़ता जा रहा था वो चीखना चाहता था पर किसी तरह खुद पे काबू पाया और आगे बढ़ा, वो सोच ही रहा था कि अब क्या करे, कहाँ जाये, तभी सड़क के दूसरी ओर उसे एक चाय की दुकान दिखी, उसके कदम तेज़ी से उस चाय की दुकान की तरफ बढ़ चले...

वो चाय वाला यूँ तो बैठा हुआ था पर काफी देर से खाली बैठने के कारण उसे भी नींद की झपकियां आने लगी थी, रवि को देखकर उसे लगा शायद कोई ग्राहक आया और बोला जी कहिये, रवि ने उससे कुछ पूछा और ये क्या .... चाय वाले ने हाँ में सर हिलाया.. रवि की आँखों में एक चमक आ गयी. वो उछल पड़ा उसकी खुशी का कोई ठिकाना ना रहा...जैसे उसके हाथ कोई खज़ाना लग गया हो...आखिर वो मिल जो गयी थी...
 
इतना परेशान होने के बाद रवि ने निर्णय लिया की आज के बाद से वो दो डिब्बी सिगरेट अपने पास रखेगा ताकि उसे इतना बेचैन और परेशान ना होना पड़े और फिर रवि ने सिगरेट जलायी धुँआ उड़ाया और घर जाकर सो गया आखिर अगली सुबह उसे दफ्तर भी जाना था...

Disclaimer:-
Smoking is injurious to health

Sunday 3 June 2018

महाभारत मैं हो जाऊँ

जो बनना हो इतिहास मुझे
तो महाभारत मैं हो जाऊँ
पांडव कौरव में भेद नही
मैं किरदारों में ढल जाऊँ

जो मोह त्याग की बात चले
मैं भीष्म पितामह हो जाऊँ
सत्यवती शांतनु  करें मिलन
मैं ताउम्र अकेला रह जाऊँ

जो पतिव्रता ही बनना हो
मैं गांधारी बन आ जाऊँ
फिर अँधियारा मेरे हिस्से हो
मैं नेत्रहीन ही कहलाऊँ

जो गुरू दक्षिणा देनी हो
तो एकलव्य मैं हो जाऊँ
बस मान गुरू का रखने को
अँगूठा अपना ले आऊँ

बात हो आज्ञा पालन की
तो द्रोपदी सी हो जाऊँ
मान बड़ा हो माता का
मैं हिस्सों में बाँटी जाऊँ
 
जब बात चले बलिदानों की
तब पुत्र कर्ण मैं हो जाऊँ
तुम राज करो सिंहासन लो
मैं सूत पुत्र ही कहलाऊँ

प्रतिशोध मुझे जो लेना हो
तो शकुनि बन के आ जाऊँ
मोहपाश का पासा फेंकूँ
और पूरा वंशज खा जाऊँ
 
जो जिद्दी मैं बनना चाहूँ
क्यों ना दुर्योधन हो जाऊँ
पछतावा ना हो रत्ती भर
मैं खुद मिट्टी में मिल जाऊँ

बात धर्म और सत्य की हो
मैं वही युधिष्ठिर हो जाऊँ
हो यक्ष प्रश्न या अश्वत्थामा
मैं धर्मराज ही कहलाऊँ

आदर्श व्यक्ति की व्याख्या हो
बिन सोचे अर्जुन हो जाऊँ
पति, पिता या पुत्र, सखा 
पहचान मैं अर्जुन सी पाऊँ

तुम बात करो रणनीति की
मैं कृष्ण कन्हैया हो जाऊँ
बिन बाण, गदा और चक्र लिये
मैं युद्ध विजय कर दिखलाऊँ

अधूरी कविता

इतना कुछ कह कर भी बहुत कुछ है जो बचा रह जाता है क्या है जिसको कहकर लगे बस यही था जो कहना था झगड़े करता हूँ पर शिकायतें बची रह जाती हैं और कवि...