Friday, 31 August 2018

आज का इंसान इतना सयाना क्यों है

ये आज का इंसान इतना सयाना क्यों है
अब आदमी ही आदमी से अनजाना क्यों है

झूठों की बस्ती है क़ीमत लहू की सस्ती है
फिर सच बयानी पे जान का जुर्माना क्यों है

तकनीक से बच्चे हुए हम बाप बन गए
दुलार में बिगाड़ें और पूछें बेटा मनमाना क्यों है
 
बातें लाज शरम की दो टके की हो चली
बेटी माँ से बोली आपका अंदाज़ पुराना क्यों है
 
लैला के नखरों से चाँदनी भी घबराने लगी
चाँद मजनूं से पूछे तू हुस्न का दीवाना क्यों है
 
सूरत पे लाली सीरत है काली हर किसी की यहाँ
असल को परे रख नकाबी चेहरा सजाना क्यों है

मार धक्का दूसरे को आगे निकलने की होड़ है
बढ़ रहे कदम अपने पर औरों को गिराना क्यों है

खाली हाथ आया और हाथ खाली ही रुख़्सती तय है
भर के माल किसी कंगाल को अमीरी दिखाना क्यों है

मियाँ की दौड़ कभी मस्ज़िद तलक रहती थी
अब ये आदम उस ख़ुदा से ही बेगाना क्यों है
 
घड़ा पाप वाला हर किसी का अब भरने लगा है
'मौन' अब यही सोचूँ सभी को गंगा नहाना क्यों है


Sunday, 19 August 2018

इतवार...एक लघु कथा

आज फिर इतवार है...

वही इतवार जिसका छोटू और बबली बड़ी बेसब्री से इंतज़ार करते हैं...करें भी क्यों ना? इतवार के दिन उन्हें जलेबी जो खाने को मिलती है और कभी कभी तो कमली उन्हें गुब्बारे और खिलौने भी लाकर देती है..

कमली कौन? उनकी माँ...

पर ये सब सिर्फ इतवार को ही होता है....शायद इसीलिए दोनों को आज के दिन का इंतज़ार रहता है...

जगिया आज फिर उदास है....मगर वो अपने बच्चों की ख़ुशी में खलल नही डालना चाहता.. इसीलिए वो हर इतवार को बाहर वाले नीम के पेड़ के पास बैठ जाता है और नीम से गिरती हुई पत्तियों को देखा करता है...रोज कितनी ही पत्तियां गिरती है पेड़ से..पर उन्हें कोई चोट नही लगती वो जैसे पेड़ से टूटती हैं बिल्कुल उसी हालत में नीचे गिरती हैं लहराती हुई..या यूँ कहें ख़ुशी से झूमती हुई.. शायद पेड़ से आज़ाद होने की ख़ुशी मनाती हैं....उस कड़वे नीम के पेड़ से कोई भी ख़ुश नही है....उसकी खुद की पत्तियां भी नही....तभी तो शायद एक एक करके उससे दूर हो रही हैं...

ये वही पेड़ है जिसकी सूखी डाल को काटते समय एक साल पहले जगिया गिर गया था और उसके बाद फिर कभी अपने पैरों पर खड़ा नही हो पाया....

तब से कमली ही घर का खर्च चलाती है..कमली दिनकर बाबू की हवेली पर बाई का काम करती है..वहाँ से हर महीने पगार के अलावा रोज का बचा हुआ खाना भी मिल जाता है..और दिनकर बाबू के बच्चों के उतारे हुए कपड़े भी छोटू और बबली के लिए मिल जाते हैं..

पर आज इतवार है आज दिनकर बाबू घर पर होते हैं और आज ही के दिन वो अपना कमरा कमली से साफ करवाते हैं..और जब कमली सफाई करती है तब दिनकर बाबू कमरे में ही होते हैं..उन्होंने ठकुराइन को बोल रखा है कि मैं अपने सामने कमरा साफ करवाऊँगा..इन नौकरों का क्या भरोसा कोई क़ीमती सामान उठा के चलते बनें....

और कमरे की सफ़ाई के बाद वो कमली को कुछ इनाम जरूर देते हैं..इनाम यानी कि कुछ पैसे..जिससे वो बच्चों के लिए जलेबियाँ ले जाती है...

पर इनाम पाकर भी कमली ख़ुश नही दिखती... हाँ बच्चों के सामने वो हँसती जरूर है पर जगिया उसकी हँसी के पीछे का पछतावा देख लेता है..शायद वो सब जानता है फिर भी वो कमली को हर इतवार रोक नही सकता आखिर बच्चों की ख़ुशी का सवाल है...वो ख़ुशी जो शायद कमली ही उनके लिए ला सकती है...

ये इतवार हर बार आता है..किसी के लिए खुशियाँ और किसी के लिए पछतावा लेकर...

By अमित मिश्रा 'मौन'

Wednesday, 15 August 2018

एक बेहतर हिंदुस्तान..

मुल्क के सिपहसालारों को भी कुछ काम दिया जाए
सफेदपोशों को दग़ाबाज़ी का  अब इनाम दिया जाए

ख़्वाहिशे अधूरी  हैं  जिनकी  ये  मुल्क  बाँटने  की
सर क़लम कर उनका मुक़म्मल मुक़ाम दिया जाए

जिहाद के बहाने कुछ लोग ज़न्नत ढूंढ़ रहे घाटी में
अब उन्हें भी उनके हिस्से का इंतक़ाम दिया जाए

ख़्वाब अधूरे हैं हिंद की ख़ातिर शहीद उन जवानों के
आओ मिल कर  उनके सपनों को अंजाम दिया जाए

भगवे-हरे  को मिला  एक  नया  कफ़न बनाना  है
मज़हबी ठेकेदारों को सुला कर आराम दिया जाए

काली रातों में पहाड़ बन जो खड़े हैं सरहदों पर
कभी उन्हें भी सुकून भरे  सुबह शाम दिया जाए

सब  कुछ  तो दिया  इस  धरती  ने  हमें  गुजारे  ख़ातिर
अब फर्ज़ हमारा की इसे वतनपरस्त आवाम दिया जाए

बहुत  हुआ  'मौन'  रहना हर रोज  सड़कों पे लहू देख
क्यूं ना नई नस्लों को एक बेहतर हिंदुस्तान दिया जाए

©अमित मिश्रा

Monday, 13 August 2018

माहताब की लाली

माहताब की लाली को बादलों में छुपाया ना करो
यूँ  बेवजह  रूखसारों  पे जुल्फें  गिराया  ना करो

बाहों  के  घेरों  में सिमटो  तो  नज़रें  झुका लो
रंग-ए-हया के चिलमन से बाहर आया ना करो

गुफ़्तगू  वस्ल  की बेशकीमती खजाना है जानां
शब-ए-इश्क के किस्से सरेआम सुनाया ना करो

ग़ुरूर  चाँदनी  का  भी  अब  हवा  हो  चला
यूँ हर बार सितारों को आईना दिखाया ना करो

नीयत महबूब की  दगाबाज़ी पे उतर ना जाए
निगाहों के मयकदे में हर बार बुलाया ना करो

बोसों की बारीश से कुछ पल की राहत बख्शो
लबों से जकड़  हर बार 'मौन' बिठाया  ना करो


अधूरी कविता

इतना कुछ कह कर भी बहुत कुछ है जो बचा रह जाता है क्या है जिसको कहकर लगे बस यही था जो कहना था झगड़े करता हूँ पर शिकायतें बची रह जाती हैं और कवि...