Sunday 4 August 2019

सफ़र

हम सभी अक़्सर बस या रेल से सफ़र करते हैं और हर लंबें सफर के रास्ते में कुछ ऐसी जगहें आती हैं या दिखती हैं जब लगता है कि देखो कितनी खूबसूरत जगह है, कितने प्यारे नज़ारे हैं। काश यहीं रूक जाते या काश यहाँ थोड़ा समय बिता सकते।

पर चाह कर भी हम वहाँ नही रुक पाते और देखते रहते हैं  अपनी रेल या बस की खिड़कियों से उन नज़ारों को भागते हुए। जितनी तेज हमारी गाड़ी की चाल होती है उतनी ही तेजी से वो नज़ारा हमारी आँखों के सामने से ओझल होता चला जाता है।

हम सोचते हैं कि कितनी जल्दी ख़त्म हो गया ये नज़ारा, कितना अच्छा होता अगर थोड़ी देर और दिखता ये सब।

पर सब कुछ जानते हुए भी हम ये नही मानते की वो दृश्य कहीं नही गया वो अभी भी वहीं है जहाँ हमने उसे देखा था। भाग तो हम रहे हैं उस दृश्य से दूर, भागने की जल्दी हमें है क्योंकि हमें कहीं और पहुँचना है।

जीवन के सफ़र में भी यही होता है। हम भागते चले जाते हैं अपनी उस मंज़िल की ओर जो हर बार करीब होकर फ़िर अपनी दूरी बढ़ा लेती है और हम ताउम्र उसका पीछा करते हुए बढ़ते जाते हैं।

रास्ते में मिलते हैं हमें रिश्ते, नाते, प्यार, लगाव, आकर्षण अपनापन और कुछ खास पल जब हमें लगता है कि काश यहाँ रुक पाता या काश इसके साथ और समय व्यतीत करता, मग़र भागने की जल्दबाज़ी में हम वो सब छोड़ आते हैं और फ़िर यही सोचते हैं कि ये सब कितनी जल्दी ख़त्म हो गया।

पर सच तो ये है कि ख़्वाहिशों, जरूरतों और महत्वाकांक्षाओं के वशीभूत होकर हम स्वयं समय के साथ आगे बढ़ आये हैं कुछ ख़ूबसूरत लम्हों को पीछे छोड़कर।

वो लम्हे अब भी समय के उस चक्र में ठीक वैसे ही हैं जैसा उन्हें छोड़कर हम आगे बढ़ गए थे...

अमित 'मौन'

10 comments:

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन भगवान को भेंट - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (06-08-2019) को "मेरा वजूद ही मेरी पहचान है" (चर्चा अंक- 3419) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. समय के साथ चलना मजबूरी है या समय ही हमे आगे की ओर धकेलता रहता है.. मुझे पता नहीं. कुछ नजारे समय के साथ बदल भी जाते हैं. जिन्दगी में हम वापिश मुड़ कर उन नजरों की ओर आते हैं तो पाते हैं कि वही नजारे अब बंजर बन चुके हैं. तब वापिश मुड़ना सज़ा बन जाता है.
    उम्दा लेखन.
    पधारें- कायाकल्प

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    1. हार्दिक धन्यवाद आपका

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  4. सच है जगह वहीँ रहती है हम आगे निकल जाते हैं .. अपनी मसरूफियत में उनका मज़ा नहीं ले पाते ...

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    1. जी सही कहा आपने...बहुत बहुत धन्यवाद आपका

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  5. बहुत खूबसूरत सृजन !

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