Sunday 28 June 2020

सीख

एक शिक्षक हमें पढ़ना सिखा सकता है पर हमें क्या पढ़ना है वो हमें स्वयं तय करना है। हम सीखना चाहें तो हर पल हमको कुछ सिखाता है और ना चाहें तो किताबें भी निर्जीव वस्तु हैं।

क्योंकि इंसान को सबसे ज्यादा बुद्धिमान जीव माना गया है इसीलिए इंसान की हर दशा एक सीख देकर जाती है।

पाबंदियों के बावजूद कहीं भी पहुँचा जा सकता है, ये बात हमारा मन सिखाता है।

बढ़ना चाहो तो कोई रोक नही सकता ये हमे आँसुओं ने सिखाया।

हँसते हुए हम ये सीखते हैं कि दुनिया में बहुत कुछ अच्छा भी है।

चोट का ठीक होना ये सिखाता है कि हर दर्द का अंत निश्चित है और धूप का छाँव में बदलना तय है।

इस दुनिया में सब कुछ मुमकिन है ये हम सपनों से सीख सकते हैं।

अमित 'मौन'

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Saturday 20 June 2020

क्योंकि फूल तोड़ने पर सूख जाते हैं

तुम्हे सिर्फ़ नीला रंग पसंद था 
क्योंकि आसमान अनंत है।

तुम्हे बालियाँ बहुत पसंद थी
क्योंकि दुनिया गोल और बड़ी है।

तुम बालों को खुला रखती थी
क्योंकि पक्षियों को उड़ना पसंद है।

तुम काजल ऊपर तक लगाती थी 
क्योंकि काली रातें लंबी होती हैं।

तुम कितना बोलती थी
क्योंकि नदियों की प्रवृति बहते रहना है।

तुम अक़्सर गुस्सा हो जाती थी
क्योंकि मौसम बदलता रहता है।

मैं तब इन बातों को जान नही सका
क्योंकि होनी कभी टलती नही है।

मैं तुम्हें जाता हुआ देखता रहा
क्योंकि दिन ढलते जरूर हैं।

मैंने तुम्हें रोका नही
क्योंकि हवा मुट्ठी में नही टिकती।

अब मैं पहले जैसा नही रहा
क्योंकि फूल तोड़ने पर सूख जाते हैं।

अमित 'मौन'

  

Sunday 14 June 2020

अधूरा सफ़र

हम जैसे जैसे आगे बढ़ते जाते हैं वैसे वैसे हमारे आस पास की भीड़ कम होती जाती है क्योंकि हर कोई उस दुर्गम रास्ते पर चल नही पाता या यूँ कहें कि किस्मत उन्हें बढ़ने नही देती। आगे जाते जाते बस गिनती के लोग बचते हैं और वो भी ऐसे लोग जिन पर बस किसी तरह आगे निकलने का जुनून रहता है। उन्हें साथी मुसाफ़िरों से कोई सहानुभूति या मतलब नही होता। वो बस किसी तरह वहाँ पहुँचना चाहते हैं जहाँ पहुँचने का सपना हर कोई देख रहा होता है। 

उस जगह जाकर या यूँ कहें कि सफ़र के उस मुक़ाम पर पहुंचकर आप इतने अकेले हो जाते हैं कि अगर चलते चलते आप थक कर गिर भी पड़े तो कोई उठाने के लिए नही रुकता क्योंकि वो जानता है कि अगर वो रुका तो वो पीछे रह जाएगा। इसीलिए आपको ख़ुद ही ख़ुद को उठाना पड़ता है। चोट पर मलहम लगाना पड़ता है और फ़िर से चलना पड़ता है। चलते चलते और गिरते गिरते आपके शरीर पर कितने ही घाव पड़ जाते हैं पर वो घाव आप किसी को दिखाना नही चाहते। शायद आपको लगता है कि इससे लोग आपको कमजोर समझने लगेंगे। आपकी शारीरिक और मानसिक क्षमता क्षीण हो चुकी होती है पर आप उसे नजरअंदाज करते हुए बढ़ते चले जाते हैं।

सफ़र में एक मुक़ाम ऐसा भी आता है जब लोगों को लगता है कि आपने उस ऊँचाई को छू लिया है जिसे पाने के लिए आप बढ़े थे और आपको भी ऐसा दिखाना पड़ता है कि हाँ हाँ मैं बहुत ऊपर आ गया हूँ। आप ऊपर से हाथ हिलाते हैं और नीचे खड़े लोग आपके सम्मान में तालियाँ बजाते हैं और उम्मीद करते हैं कि आप और ऊपर जाएंगे। 

आपको ऊपर से नीचे देखने में डर भी लगता है पर आप उस डर के बारे में नीचे वालों को नही बता सकते क्योंकि आपको सम्मान खो देने का भी डर होता है। आप उसी सम्मान और उम्मीद के बोझ तले दबे हुए और आगे बढ़ते चले जाते हैं। और फ़िर जितनी दूरी आप तय करते हैं उतना ही बड़ा अकेलापन का घेरा आपके इर्द गिर्द बनता चला जाता है। आगे बढ़ते बढ़ते आप थक चुके होते हैं पर आप थक कर बैठ नही सकते क्योंकि फ़िर पीछे रह जाने का डर आपके साथ साथ चलने लगता है। आपके पीछे वाले आपके लिए तालियां बजा रहे होते हैं और आप उनको देख कर मुस्कुरा रहे होते हैं। पर उस मुस्कुराहट के परे आपके मन की उथल पुथल किसी को पता नही चल पाती क्योंकि आप किसी के साथ उसे बाँटना नही चाहते या बाँटने से डरते हैं।

इस डर, उम्मीद और अकेलेपन का एहसास शायद हमें बहुत देर से होता है और कभी कभी इतनी देर हो जाती है कि इनसे निज़ात पाने का मौका हमारे हाथ से निकल चुका होता है।

क्या ऐसा नही हो सकता कि जब हम गिरे और हमें चोट लगे तो हम थोड़ी देर और रुक जाएं। उस चोट के ठीक होने का इंतज़ार करें। क्यों ना हम सफ़र के दौरान चलते हुए ही लोगों से बात करें जो हमारे साथ या आस पास चल रहे हैं उनसे उनकी मुश्किलें पूछें और अपनी बताएं। उनसे दोस्ती बढ़ाएं ताकि एक दूसरे के गिरने पर कम से कम कोई उठाने वाला तो हो। क्यों ना हम अपनी चोटों को छुपाने के बजाय उन्हें दिखा कर उनका इलाज करवाएं। 

क्यों ना हम उस सफ़र को तेज चलकर अधूरा छोड़ने की बजाय धीरे धीरे बढ़कर पूरा तय करें।

अमित 'मौन'

#depression #life #suicide #talks #friends

Wednesday 10 June 2020

चाय पर चर्चा

ये लोग होते कौन हैं मुझे जज करने वाले...ये आख़िर जानते ही क्या हैं मेरे बारे में... क्या में सच में ऐसी लगती हूँ... तुम तो जानते हो मुझे...और तुम तो बहुत बड़े समझदार बनते हो.. सच सच बताना क्या तुम्हें भी ऐसा ही लगता है? (लगभग झल्लाती हुई राधा कृष से बोली)

कृष- सबसे पहले तो तुम्हे बता दूँ कि समझदार बनने और समझदार होने में बहुत फ़र्क है। मुझे नही पता कि मैं समझदार हूँ या नही क्योंकि ये स्वयं तय नही किया जा सकता कि आप कैसे हैं। 

राधा- यार ये गोल मोल बातें ना करो और जो पूछा है प्लीज उसका जवाब दो। क्या तुम भी मेरे बारे में ऐसा ही सोचते हो?

कृष - तुम बोलने का मौका दोगी तभी तो बताऊंगा (हँसते हुए), देखो ऐसा है इंसान का दिमाग़ एक स्केच आर्टिस्ट के जैसा होता है। जैसे स्केच आर्टिस्ट के सामने आप जैसे दिखते हो वो वैसे ही आपका स्केच बनाता है ठीक उसी तरह कोई इंसान आपको जितना जानता है या जितना आपके बारे में देखा या सुना है वो उसी हिसाब से आपकी एक तस्वीर अपने दिमाग़ में बना लेता है। फ़िर समय और अनुभव के हिसाब से उस तस्वीर में फेरबदल भी होते रहते हैं। यही कारण है किसी भी एक इंसान के बारे में दो लोगों की राय अलग अलग हो सकती है क्योंकि ये विचार उसके अपने अनुभवों से बनते हैं।

राधा- इसका मतलब तुम तो मुझे वैसी नही समझते जैसा बाकी लोग मेरे बारे में बात करते हैं। क्योंकि तुम तो लगभग सब कुछ जानते ही हो मेरे बारे में?

कृष- इसका जवाब मैं तुम्हे पहले ही दे चुका हूँ। क्योंकि मैं तुम्हे दूसरों से ज्यादा जानता हूँ तो यकीनन मेरे विचार दूसरों से अलग होंगे।

राधा- फ़िर तो लोग तुमको भी गलत समझते होंगे? क्योंकि तुम भी तो बहुत कम बात करते हो और तुम्हारे दोस्त भी कम हैं। तुम तो सोशल मीडिया पर भी बहुत कम एक्टिव रहते हो।

कृष- ग़लत सही का तो पता नही पर सोशल मीडिया वाले दोस्त जरूर मुझे कूल समझते होंगे क्योंकि मेरा नाम वहाँ कृष है और मैं पूरे साल में सिर्फ़ अपने आउटिंग वाले पिक्चर्स पोस्ट करता हूँ जिसमें मैं सनग्लासेज़ लगा के पहाड़ों और समुद्र के किनारे पोज दे रहा होता हूँ और उसी हिसाब से वो मुझे जज करते होंगे। अब उन्हें क्या पता कि मेरा असली नाम कृष्णकांत है और मैं अभी थोड़ी देर पहले अपने बॉस से डाँट खा कर यहाँ तुम्हारे पैसों की चाय पी रहा हूँ।

राधा (हँसती हुई)- यार ये तुम्हारे सोशल मीडिया वाले उदाहरण से मेरे सारे डाउट्स क्लियर हो गए। तुम सच में आदमी काम के हो। तुमको चाय पिलाना कभी महँगा नही पड़ता।

दोनों हँसते हुए उस कैफेटेरिया से अपने अपने क्यूबिकल केबिन में वापस चले गए।

अमित 'मौन'

अधूरी कविता

इतना कुछ कह कर भी बहुत कुछ है जो बचा रह जाता है क्या है जिसको कहकर लगे बस यही था जो कहना था झगड़े करता हूँ पर शिकायतें बची रह जाती हैं और कवि...