Monday 30 April 2018

बदल जाते हैं

नजदीकियां बढ़ाने वाले  अक्सर  बदल जाते हैं
दिल में आशियाना बना चुपके से निकल जाते हैं

राह-ए-जिंदगी में तन्हा बढ़ना ही मुनासिब होगा
लगे कोई ठोकर भी तो फिर जल्द संभल जाते हैं

जो बरसों चले हों तपती धूप में  नंगे पांव रहकर
वो बारिश तो क्या ओस की बूँद से मचल जाते हैं

लगा के आग जो  तमाशे का लुत्फ़ लिया करते हैं
चिंगारियाँ भड़काने वाले अक्सर खुद जल जाते हैं

'मौन' इस खामोशी का दर्द बयां करें भी कैसे
इसकी चीखों से यहाँ सन्नाटे भी दहल जाते हैं

Saturday 28 April 2018

सब समझता हूँ

हवा के झोंके सा हरदम ही बहता हूँ
मदमस्त हूँ  मैं अपनी धुन में रहता हूँ

नकाबों में छुपे  असली चेहरे हैं  देखे
गिरगिट से पहले  अब रंग बदलता हूँ

झूठी मुस्कान और  मीठी जुबान मेरी
हकीकत सारी  कागज पे  लिखता हूँ

मतलबी जमाना और फरेबी दुनिया है
सबके मन की बातें  आँखों में पढता हूँ

देखो खंजर से  छलनी ये  पीठ है मेरी
नफरत से नही  अब प्यार से  डरता हूँ

इन  तंग  गलियों  में  मुझको ना  ढूंढो
इस भीड़ में शामिल  अकेला चलता हूँ

कई राज़  गहरे  मेरे  सीने में  दफ़न हैं
हूँ  'मौन'  बेशक  पर  सब समझता हूँ

Tuesday 24 April 2018

यूँ खुद तो गम मेरे दरवाजे नही आया होगा

यूँ  खुद तो गम  मेरे दरवाजे नही आया होगा
जरूर किसी अपने ने पता मेरा बताया होगा

चेहरे पे नमी सी  जो मालूम पड़ती है  आज
कल रात वो शख़्स आंसुओं में  नहाया होगा

बूँदे लहू की  इन जख़्मों पे  रिसती नही अब
कोई भंवरा तो इनके इर्द गिर्द मंडराया होगा

खंजर के निशां  जिस्म पे  दिखने लगे हैं  अब
कोई इतने करीब दिल की राहों से आया होगा

अब खामोशियाँ गूँजा करती हैं इस सन्नाटे में
'मौन' होने से पहले वो जरूर चिल्लाया होगा

Saturday 21 April 2018

सोच

कभी उत्साही और उद्दंड है, 
कभी खुद पे ही  घमंड है
कभी प्रखर कभी प्रचंड है,
सोच का न कोई मापदंड है

अगर जो ये  कुरूप है, 
फिर कार्य उसी  अनुरूप  है
मस्तिष्क का प्रतिरूप है,
तेरी सोच ही तेरा स्वरुप है

कभी प्रलाप कभी ये राग है,
तुझसे जुड़ी तेरा ही भाग है
खुद को जलाये वो आग है, 
बुरी सोच आत्मा पे  दाग है

इसके कई प्रकार है,
इसका रूप निराकार है
निकाल जो विकार है,
स्वच्छ सोच तेरा आधार है

Wednesday 18 April 2018

सफर लंबा है...

सफर लंबा है अभी तू बस मंजिल का इंतज़ार कर
कमजोर ना पड़े राहों में पहले खुद को तैयार कर

संकरे रास्ते और तंग गलियां हैं जरा मुश्किल होगी
ये जो पत्थर चुभते हैं पहले इनको दरकिनार कर

वो हँसेंगे तेरे गिरने पर और फिर हौसला भी तोड़ेंगे
फर्क न पड़े तुझे जरा भी खुद को इतना शर्मशार कर

मंजिल से कर मोहब्बत और इन राहों को सनम बना
उसे हासिल करने की हो जिद यूँ खुद को बेकरार कर

मुश्किल हालात होंगे कुछ रुकावटे भी होंगी जरूर
दिक्कतों को दुश्मन समझ और पलट के वार कर

नाकामी हाथ आयेगी और उदासियाँ भी साथ लायेगी
एक बार में जो काम हो नही तू कोशिश बार बार कर

कामयाबी जवाब होगी जिनको यकीन नही तुझ पर
तू बस 'मौन' अपने कर्म कर और मुट्ठी में संसार कर

Sunday 15 April 2018

बुलंद इरादे

जाने क्यों हर रोज बस एक ख़्वाब आता है
बोसे लेने को इस जमीं पे माहताब आता है

सवालों की फ़ेहरिश्त बड़ी लंबी हो चली थी
दूर फ़लक से उन  सभी का जवाब आता है

अँधेरे की एक चादर  लिपटी  हुई  है बदन से
डर को भगाने खिड़की पे आफताब आता है

कई  रोज गुजरे  इन  मायूसियों  में कैद  हुए
तोड़ने  जंजीरें  सभी अब  इंकलाब आता है

नाउम्मीदी  के  भंवर में  अब  उलझना  कैसा
बढ़ाने कश्ती मेरी हौसलों का सैलाब आता है

निकला  जो 'मौन'  बुलंद  इरादे  साथ लेकर
लौटकर  हर शख्स  फिर  कामयाब आता है

Tuesday 10 April 2018

उस रोज हम खुशनसीब होते हैं

उस रोज  हम  खुशनसीब  होते हैं
जिस रोज वो हमारे करीब होते हैं

अहबाब हैं  बहुत  जिंदगी में मेरी
उन सबमें ख़ास वो हबीब होते हैं

जब वक़्त गुजारूं सोहबत में उनकी
सब यार भी  मेरे तब  रक़ीब होते हैं

मेरी हर दौलत उनके  होने से ही है
वो ना हों तो फिर हम गरीब होते हैं

बस पढता हूँ  उनकी  हर अदाओं को
उनसे दूर होकर ही हम अदीब होते हैं

रहता हूँ बस 'मौन' उनके ना होने पे
उनके बिन हर  लम्हे अजीब होते हैं

Saturday 7 April 2018

दास्तान-ए-इश्क़

ज़िक्र ना करो दास्तान-ए-इश्क़ का हम डर जायेंगे
अरमानों का जनाजा उठ चुका हम भी मर जायेंगे

बड़े  जतन  से  समेटा है  टूटे दिल  के  टुकड़ों को
ठोकर जो लगी  यादों की बस यहीं बिखर  जायेंगे

कुछ  लफ्ज़  बहकेंगे  जब  तार दिल के छेड़ दोगे
बेवजह ही  अभी  यारों की  नज़रों से उतर जायेंगे

खुद को  लुटा बैठे उनपे प्यार बेहद ही रहा अपना
बेवफाई में  जो बहके तो फिर हद से गुजर जायेंगे

साकी से  मिलने  को मयखानों का रुख जो किया
अब तो आँखों के  पानी से ही ये प्याले भर जायेंगे

होंठों पे  हंसी जो बिखरी है  अपनों की सोहबत में
अश्कों को  बहाने अंधेरों में  फिर अपने घर जायेंगे

कर सको अगर  वादा  महफ़िल में  'मौन' बिठाने का
दर्द-ए-दिल तुम्हारा सुनने कुछ पल और ठहर जायेंगे

Monday 2 April 2018

स्वतंत्र भारत के पूज्यनीय नेता जी

हाथ में फावड़ा उठा के वो खेतों में पहुँच जाते हैं
सहानुभूति जताने को गरीब के घर खाना खाते हैं

वो बड़ी बड़ी बातें करते हैं विज्ञान के विकास की
सर्दी जुकाम का इलाज़ कराने विदेश चले जाते हैं

उनके हिसाब से शिक्षा के क्षेत्र में बड़ी तरक्की हुई
मगर अपने बच्चे को सिर्फ ऑक्सफ़ोर्ड में पढ़ाते हैं

ईमानदारी से आयकर भरने की अपील करने वाले
ये खुद अपना पैसा विदेशी बैंक खातों में छुपाते हैं

हिंदुस्तान तो एक धर्म निरपेक्ष देश है सबके लिये
मगर चुनाव से पहले जातिगत सर्वेक्षण करवाते हैं

जनता से मिलने को समय का अभाव है इनके पास
शायद इसीलिये हर सत्र में ये संसद भंग करवाते हैं

कहने को सबके आदर्श सिर्फ महात्मा गांधी यहाँ
पर अब गाली गलौज के साथ ये हाथ भी उठाते हैं

जिनको रोजगार मुहैया कराया है वो एहसान मंद हैं
बेचारे झंडा उठाके इनकी रैलियों की शोभा बढ़ाते हैं

खादी भले ना हो पर कुर्ता और कमीज सफेद ही है
बातों में अपनापन जता ये सभी को टोपी पहनाते हैं

वादों को भूल जायें भले पर त्यौहार नही भूला करते
ईद और दिवाली पे मुबारकबाद के पोस्टर छपवाते हैं

कुसूर इनका नही जादू इनके लुभावने भाषण का है
परेशान होकर भी इनके निशान पे ही ऊँगली दबाते हैं

बाकी जनता है सब जानती है....
गिरगिट और इंसान का फर्क पहचानती है..
        

अधूरी कविता

इतना कुछ कह कर भी बहुत कुछ है जो बचा रह जाता है क्या है जिसको कहकर लगे बस यही था जो कहना था झगड़े करता हूँ पर शिकायतें बची रह जाती हैं और कवि...