Tuesday 23 October 2018

लंबा है किस्सा बताऊं मैं कैसे..

गहरा  ज़ख़्म है  दिखाऊं मैं कैसे
ये लंबा है क़िस्सा बताऊं मैं कैसे

सड़कें शहर की जकड़े हैं बैठी
वापस  मेरे गाँव  जाऊं  मैं कैसे

सज़दे सनम के बहुत कर लिए
ख़ुदा रूठ बैठा  मनाऊं मैं कैसे

शज़र  ना कोई  इस शहर में बचा
अब छत पे परिंदे  बुलाऊं मैं कैसे

क़ज़ा  पूछती है  रज़ा  अब  मेरी
हाल कैसा है मेरा बताऊं मैं कैसे

झूठी हँसी की जो आदत पड़ी है
'मौन' हूँ रहता  चिल्लाऊं मैं कैसे

Friday 12 October 2018

घर से निकले हैं पढ़ने को....

घर  से  निकले  हैं  पढ़ने  को
जीवन  के पथ  पर  बढ़ने को
कदम  है अगला आज बढ़ाया
एक रोज शिखर पर चढ़ने को

ना  पहले  सी शामें  होंगी
ना  सुबहा होगी अलसाई
जो वक़्त गँवाया मस्ती में
उसकी होगी अब भरपाई

ना  घर जैसा  खाना होगा
ना  अम्मी तुझे खिलाएगी
उठना होगा घड़ी देख कर
आवाज़ ना तुझे जगाएगी

ना डर होगा अब पापा का
वो कब ऑफिस से आएंगे
बस  तू ना  होगा खाने को
थैले  में  फल  जब लाएंगे

अब  दादा  ना  पुचकारेंगे
ना  सहलाएँगे  तेरे   गाल
अब  दादी  भी  ना  पूछेगी
कमजोर हो गया मेरा लाल

ना बहना से झड़पें होंगी
ना  कोई उसे  चिढ़ाएगा
घरवालों  के  आगे  अब
रोकर  कौन  दिखाएगा

कैसे  भाई   को  डांटेगा
हर चीज़ बराबर बांटेगा
ना सांझी अलमारी होगी
जो अपने कपड़े छांटेगा

ना हुड़दंगी महफ़िल होगी
ना  घंटों  होगा  बतियाना
जाने  कब  दोबारा  होगा
उन  यारों  से  मिल  पाना

अब उम्मीदों का बोझा है
जो तुझको पूरी  करनी है
खाली कलम है कल तेरा
स्याही तुझको ही भरनी है

अब वापस जो तू लौटेगा
ना  इन लम्हों  को पाएगा
कुछ रस्ते नये मिलेंगे फिर
जिन पर तू बढ़ता जाएगा

By Amit Mishra

  

अधूरी कविता

इतना कुछ कह कर भी बहुत कुछ है जो बचा रह जाता है क्या है जिसको कहकर लगे बस यही था जो कहना था झगड़े करता हूँ पर शिकायतें बची रह जाती हैं और कवि...