Wednesday 21 October 2020

तिल

मुझे शुरू से ही ख़ामोशियों से बड़ा लगाव था और तुम्हें चुप्पियों से सख़्त नफ़रत थी। हमारे बीच हर बार हुई घंटों लंबी बातचीत में सबसे ज्यादा योगदान तुम्हारा ही हुआ करता था। माँ-बाबा से मिली डाँट, भाई से हुई नोक-झोंक और टीचर से मिली शाबाशी से लेकर सहेलियों के साथ हुई कानाफूसी तक कुछ भी ऐसा नहीं बचा जो तुमने मुझे नही बताया हो। मुझे तुम्हे सुनना हमेशा अच्छा लगता था, इसलिए नही की वो बातें मेरे काम की होती थी बल्कि इसलिए कि उन सारी बातों की वजह से मुझे चुप रहने और तुम्हें देखते रहने का मौका मिल जाता था। यकीन मानो तुम्हारे चेहरे को मैंने इतने ध्यान से देखा है कि तुम्हारे कान की सभी बालियों के डिज़ाइन तक याद हो गए हैं।


कभी कभी तुम्हें मेरी होशियारी का पता भी लग जाता था और तुम मेरी तरफ़ पीठ करके आसमान की ओर देखने लगती थी। मैं फ़िर भी तुम्हे ध्यान से देखता रहता था। तुम्हारी गर्दन के ठीक नीचे, पीठ पर उगा वो तिल मुझे हमेशा अपनी तरफ आकर्षित करता था। वो तिल शायद जानता था कि मैंने तुम्हे इतने ध्यान से पढ़ा है कि एक दिन मैं तुम्हे लिखना शुरू कर दूंगा। उस तिल को शायद अपनी जगह से शिकायत थी, उसे लगता था कि हर कोई बस चेहरे के किसी हिस्से पर उगे तिल की तारीफ़ करता है और उसकी जगह ऐसी थी कि वहाँ ख़ुद उस तिल का मालिक भी उसे नहीं देख सकता था। पर मैं उसे भी निहारता था क्योंकि वो भी तुम्हारा ही हिस्सा था।

मुझे अंदाज़ा नही था कि एक दिन तुम बहुत दूर चली जाओगी। इतनी दूर की जहाँ से वापसी की कोई सड़क नही बनी। तुम शायद इसीलिए आसमान की तरफ़ देखा करती थी क्योंकि तुम्हें पता था कि बाद में वहाँ रहकर तुम हर पल मुझे निहार सकती हो पर मैं तुम्हे नही देख पाऊंगा। तुम शायद ये नही जान पाई कि तुम मेरे ज़हन में इतनी अच्छी तरह बसी हुई हो कि मैं बिना सोचे तुम्हारी तस्वीर बना सकता हूँ पर तुम ये जरूर जानती थी कि मुझे तस्वीर बनाना नही आता। मैंने तुम्हें रट रट कर पढा है इसलिए अब अक़्सर तुम्हे लिखा करता हूँ। मेरी यादों में तुम एक किताब हो जिसे सिर्फ़ और सिर्फ़ मैं ही पढ़ सकता हूँ। मैं अक़्सर उस किताब का कोई अध्याय काग़ज पर लिख लिया करता हूँ। मैंने सोचा है कि मेरे दुनिया से जाने के पहले इस किताब के सारे अध्याय लिख लूंगा। पर लाख कोशिशों के बावजूद एक बार में एक पेज से ज्यादा नही लिख पाता। मेरे हाथ काँपने लगते हैं और आँखें धूमिल हो जाती हैं।

आज मैं सिर्फ़ पीठ का तिल लिख पाया हूँ और आँखों से एक बूँद काग़ज पर गिर गयी है। शायद ये बूँद स्याही में मिलकर तिल बन जाएगी।

अमित 'मौन'


PC: GOOGLE


Sunday 11 October 2020

बदलाव

हम दुःखों से घिरे होते हैं पर दिन नही कटते
हम नींद में होते है और दिन बदल जाते हैं।

हम मिन्नतें करते हैं पर बारिश नहीं होती
हम उदास बैठते हैं बादल चले आते हैं।

आँधियाँ ज़ोर लगाती हैं पत्ते नही गिरते
मौसम बदलता है पत्ते गिर जाते हैं।

कुछ ज़ख़्मों पर दवा असर नही करती 
कुछ घाव बिना दवा के सूख जाते हैं।

हम दुनिया से लड़ते हैं पर ख़ुद को नही बदलते
हम प्रेम में होते हैं और हम बदल जाते हैं।

कुछ बदलाव वक़्त के साथ आते हैं
और हमें लगता है लोग बदल जाते हैं।

अमित 'मौन'

Wednesday 7 October 2020

शब्दविहीन

एक बात के कई मतलब निकालने वाली इस दुनिया ने कई बार उन शब्दों के भी मतलब निकालने चाहे जिनका अर्थ समझाने के लिए शब्द बन ही नही सके। कई बार हम समझ ही नही पाते कि कुछ अर्थों को शब्दों से नही भावनाओं से समझा जाता है।

हम बहुत ख़ुश होते हैं तो ख़ुशी बयान नही कर पाते और दुःखी होते हैं पर दुःख व्यक्त नही कर सकते।

ख़ुशी क्या होती है ये अपने पहले बच्चे को गोद में लेने के बाद पता चलता है और दुःख क्या होता है ये उस स्त्री से बेहतर कौन जान सकता है जिसने मंगलसूत्र पहनने का सौभाग्य खो दिया हो।

निराशा किसे कहते हैं ये उस किसान को मालूम है जिसको महीनों की मेहनत के बाद भी लहलहाती फ़सल देखना नसीब नही हुआ और चिंता भला उस पिता से बेहतर कौन जानेगा जिसकी बेटी की उम्र समाज के हिसाब से हाथ पीले करने की हो गयी हो।

गर्व करने के लिए आपको उस सिपाही का पिता बनना पड़ेगा जिसके बेटे को देश की सेवा के लिए एक विशेष समारोह में सम्मान मिल रहा हो और शर्मिंदगी का अनुभव एक अपराधी का परिवार जानता है।

दया भाव को वही महसूस कर सका है जिसने दर्द से कराह रहे किसी बेजुबान जानवर को सड़क से उठा कर उसका इलाज किया हो और समर्पण को वही समझ सका जिसने किसी के कंधे पर सर रखकर आँखें मूंद ली हों।

तुमसे मिलकर मैंने जाना कि पाने की ख़ुशी क्या होती है और तुम्हारे जाते ही मैंने खोने की पीड़ा को समझा।

हम ज़िंदगी को जितना करीब से जानने की कोशिश करते हैं उतना ही ख़ुद को शब्दविहीन पाते हैं। हम देखी-सुनी बातों को भले ही कविता या कहानी में ढालने में सक्षम हों पर अनुभवों को लिखने के लिए हमें कभी भी सटीक शब्द नही मिल पाते। हम कितना भी लिख लें पर आख़िरी पंक्ति के बाद भी बहुत कुछ छूट गया लगता है।

कुछ बातें अपने कहे जाने के इंतज़ार में दम तोड़ देती हैं।

अमित 'मौन'


P.C. - GOOGLE

अधूरी कविता

इतना कुछ कह कर भी बहुत कुछ है जो बचा रह जाता है क्या है जिसको कहकर लगे बस यही था जो कहना था झगड़े करता हूँ पर शिकायतें बची रह जाती हैं और कवि...