Friday 27 July 2018

धरोहर..


धरोहर.. हाँ यही नाम दिया है मैंने तुम्हारी यादों और तुम्हारे वादों को...

यादों की अलमारी में मैंने रखे हैं वो सारे पल जो हमने साथ बिताए थे, वो लम्हे जो हमने साथ जिये थे, कुछ खट्टी सी शरारतें, कुछ मीठा सा एहसास, कुछ तीखी नोंक झोंक और कुछ कड़वे अनुभव भी...पर उन कसमों को नही रखा है मैंने जो हमने साथ जीने मरने की खाई थी, अब क्या है कि उन कसमों की कसक कहीं उन यादों पर भारी ना पड़ जाए..इसीलिए उसे मैं वहीं छोड़ आया जहाँ हम आखिरी बार मिले थे..अभी तक वही आखिरी है पर मुझे उम्मीद है शायद इस छोटी सी दुनिया मे फिर कभी मिलना हो जाए... हाँ वैसा मिलना नही हो पाएगा पर एक दूसरे को देखना भी तो किसी मिलन से कम नही है...

पर मुझे ज्यादा प्यारी है वो वादों वाली अलमारी, क्योंकि वो बड़ी हल्की है उसे मैं अपने साथ कहीं भी ले जा सकता हूँ...कुछ ख़ास है नही उसमें फिर भी मुझे वही पसंद है..उसमें सिर्फ़ मैंने वो आख़िरी मुलाक़ात वाला वादा रखा है...वो वादा जो हमनें एक दूसरे से किया था..कभी एक दूसरे को ना भूलने वाला वादा..एक दूसरे से दूर रहकर भी ख़ुश रहने का वादा..क्योंकि इस वादे से पूरा होता है अपना वो सपना जो हमने देखा था...

अरे वही अपने प्रेम को जिंदा रखने का सपना...देखो ना  दोनों एक दूसरे को नही भूले और इस तरह अपना प्रेम हो गया ना अमर प्रेम....

बस यही है मेरी धरोहर...

Monday 23 July 2018

मौन भला हूँ

मैं  गुलों के  जैसा महकता  नही हूँ
सितारा हूँ लेकिन चमकता नही हूँ
ज़माना ये समझे कि खोटा हूँ सिक्का
बाज़ारों  में  इनकी  मैं  चलता नही हूँ
यूँ  तो अंधेरों  से  जिगरी  है  यारी
मैं ऐसा हूँ सूरज की ढलता नही हूँ
सफ़र पे जो निकला तो मंज़िल ज़रूरी
यूँ  राहों  में   ऐसे  मैं   रुकता  नही  हूँ
उम्मीद-ए-वफ़ा  ने है तोड़ा  मुझे भी
मैं आशिक़ के जैसा तड़पता नही हूँ
कोशिश में ज़ालिम की कमी नही थी
मैं पहले ही राख  हूँ  जलता  नही  हूँ
मयखानों की रौनक है शायद मुझी से
मैं  कितना  भी पी लूँ  बहकता नही हूँ
सूरत  से  ज्यादा  मैं  सीरत  को चाहूँ
रुख़सारों पे चिकने फिसलता नही हूँ
मुसीबत से अक़्सर कुश्ती हूँ करता
है लोहा  बदन मेरा  थकता  नही हूँ
मिट्टी का बना हूँ जमीं से जुड़ा हूँ
खुले आसमानों में उड़ता  नही हूँ
हुनर पार करने का सीखा है मैंने
बीच भँवर अब मैं फंसता नही हूँ
'मौन'  भला  हूँ  ना  छेड़ो  मुझे  तुम
मैं यूँ ही किसी के मुँह लगता नही हूँ


Tuesday 17 July 2018

मिलन रूहों का....

काश..

मैं लिख सकता एक कविता
जो  मैं  हर  रोज  पढ़ता  हूँ
अंतर्मन के अनकहे जज़्बात
जो  मैं  हर  रोज  सुनता  हूँ

रोज थक कर जब  सो जाता है सूरज
और शीतल चाँदनी लिए आती है रात
चाँद  इशारों  में  बुलाता  है  पास मुझे
आओ बैठ  कर  करते हैं प्रेम की बात

मैं  हटा  देता  हूँ  नक़ाब  अपना
जो  दुनिया के  लिए  पहनता हूँ
दर्द  करता  हूँ  दफ़न  अंधेरों  में
मैं उस पहर जब उनसे मिलता हूँ

जुगनुओं से रोशनी ले कर उधार
उन  लम्हों  में  उजाले  करता हूँ
चिराग़ों  को  रखता हूँ  दूर उनसे
भड़क ना जाए कहीं लौ डरता हूँ

चूड़ियाँ  चिढ़ाती  हैं  करके शोर
पायल  भी  कुछ  गुनगुनाती  है
बहाने  से  झुमके ठीक  करने में
हिना हाथों की ज्यादा लुभाती है

हवाओं को  इजाज़त  देता  नही
खुली खिड़की से अंदर आने को
साँसों  का  तूफ़ान  ही  काफी है
हमें आगोश में उड़ा ले जाने को

एहसासों के  पर्दों से  झाँकते
उन चंद  लम्हों को समेट कर
फ़िर होता है मिलन रूहों का
एक शर्म की चादर लपेट कर

दो जिस्म एक जान हो जाने की
उस पल होती सार्थक परिभाषा
सुखद  सुबह भी जुदा करे फिर
लिए पुनर्मिलन की  अभिलाषा

Friday 13 July 2018

स्वयंवर

*****स्वयंवर*****

तोड़ धनुष जब शिव जी का
मन  ही  मन  राम  हर्षाये थे
भये  प्रसन्न  सब देव स्वर्ग में
नभ  से  ही  पुष्प बरसाये थे

प्रत्यंचा जो धनुष की टूटी
चहुँ ओर एक झंकार हुई
परशुराम पहुँचे स्थल पर
वाणी से सिंह हुँकार हुई

क्रोधाग्नि  से  परशुराम  की
सभा मे जब भय व्याप्त हुआ
साक्षात  प्रभू  फिर  दर्श  दिये
संवाद का अवसर प्राप्त हुआ

हरि नारायण थे सन्मुख उनके
ये  परशुराम  को  बोध  हुआ
व्याकुल मन मे व्यथा ना रही
क्षण  में  ही  दूर  क्रोध  हुआ

कुछ  कार्य  विशेष  करने  हेतु
खुद  विष्णु  जी  हैं  प्रकट  हुए
देवी  सीता   हैं   माता   लक्ष्मी
अब नारायण इनके निकट हुए

मिली स्वीकृति फिर विवाह को
एक  उत्सव  की  शुरुआत हुई
अंत  निकट  है  कुछ  दुष्टों का
सब   देव   गणों  में   बात  हुई

डाल  गले  में  वरमाला  फिर
सीता  ने  श्रीराम  अपनाये थे
आरंभ  स्वयंवर  उस  कारण  का
जिस कारण प्रभू धरा पर आये थे

Thursday 5 July 2018

कुछ यादें...

कुछ यादें इस दिल से निकाली नही जाती
कुछ निशानियाँ हैं जो  संभाली नही जाती
कुछ  ख़्वाबों की  तामील भी  इस तरह  हुई
शिद्दत से माँगी दुआ कभी ख़ाली नही जाती
जवानी  यूँ ही सारी  भाग दौड़ में  गुजार दी
मगर पीरी तलक भी ये बदहाली नही जाती
हर   सहर   आफ़ताब  आया  कड़ी  धूप  लिये
रही शीतल सांझ वही उसकी लाली नही जाती
कुछ   ग़जलें   मुक़म्मल   होती   नही  'मौन'
एहसासों की सियाही उनमें डाली नही जाती

Monday 2 July 2018

गिला नही करते...

ख़ज़ान  के  दिनों  में  धूप  सहा नही करते
उस बूढ़े शज़र पे अब परिंदे रहा नही करते
बेटे बड़े होकर  अब ख़ुद में मशगूल  रहते  हैं
हक़ वालिद की परवरिश का अदा नही करते
अम्मी  भी   जाने  क्यों   आस  लगाये  रखती  है
क्या कुछ लोग बिन औलादों के जिया नही करते
जख़्मों  के  नासूर  बनने  का इंतज़ार करते हैं
बड़े अजीब लोग हैं जो इसकी दवा नही करते
ख़ुदा  ख़्यालों  में भी  यही सोचता  होगा
अब इंसान लंबी उम्र की दुआ नही करते
रिश्तों  में  दीवारें  अब  लंबी  हो  गई हैं
इन ऊँचे घरों में झरोखे हुआ नही करते
रिवायतें  जमाने  की  अब  बदल  गयी हैं  'मौन'
ख़ुद में कर तब्दीलियाँ औरों से गिला नही करते

अधूरी कविता

इतना कुछ कह कर भी बहुत कुछ है जो बचा रह जाता है क्या है जिसको कहकर लगे बस यही था जो कहना था झगड़े करता हूँ पर शिकायतें बची रह जाती हैं और कवि...