Friday 30 March 2018

मजहबी ठेकेदार

बात कुछ भी नही और बात को बढ़ा के बवाल कर दिया
आज फिर मजहबी ठेकेदारों ने धरती को लाल कर दिया

घुट घुट के रहना पड़ेगा  अब फिर डर के साये में
सब मुश्किल में हैं सब का जीना मुहाल कर दिया

क्या जात है क्या धर्म है यहाँ साबित करो देशभक्ति को
अब हर गुजरने वाले से बस  यही एक सवाल कर दिया

कहीं प्रदर्शन कहीं आग कहीं है पत्थरों की बौछार
जरा देखो इन्होंने हर रास्ते का बुरा हाल कर दिया

कोई हरा ढूंढ़ रहा कोई भगवे की तलाश में  भटक रहा
वो हाथों में तिरंगा ले आया बस उसने कमाल कर दिया

जैसा की आप सभी ने सुना होगा देश के एक हिस्से में फिर से वही बिना बात का बवाल हो रहा है जिसका कोई औचित्य नही है..

एक आम नागरिक वो चाहे किसी भी धर्म का हो ये सब नही चाहता फिर भी ये बार बार होता है और इसकी चपेट में सिर्फ आम नागरिक ही आते हैं..

इसका कारण ये है कि हम कुछ विशेष लोगों की बातों में आके इन सब का हिस्सा बनने के लिये तैयार हो जाते हैं जबकि वो विशेष लोग अपने घरों और दफ्तरों में बैठ के तमाशा देख रहे होते हैं..

क्या हमने कभी ये सोचा है कि वो जो सीमा पे खड़े होकर सिर्फ हमारे सुकून के लिये अपने परिवार से दूर होकर अपनी नींदों का त्याग करते हैं वो क्या सोचते होंगे ये सब सुनकर.. क्या उनके मन में ये ख्याल नही आता होगा की हम किसके लिये यहाँ पर अपना जीवन दांव पे लगा रहे हैं उनके लिये जो आपस में ही लड़ के मरे जा रहे हैं..
नही वो ऐसा नही सोचते पर अगर यही हाल रहा तो जल्दी ही उन्हें ऐसा सोचने पे मजबूर होना पड़ेगा..

खैर हम सभी समझदार हैं और अच्छे बुरे की पहचान रखते हैं इसलिये खुद भी समझें और अपने आस पास के लोगों को भी जागरूक करें ताकि वो किसी के बहकावे में आकर इन सब का हिस्सा ना बने.
समय देकर पढ़ने के लिये धन्यवाद🙏🙏

Saturday 24 March 2018

तुम और चाय


सुनो ना आजकल सब चाय के बारे में लिख रहे हैं..
मैं भी लिख दूं क्या?

अपनी वो चाय और वो बातें ..याद है तुम्हे ..

मेरा  अचानक  तुम्हे चाय  पे बुलाना
तुम्हारा  घर  पे  नया  बहाना बनाना
चोरी चोरी पीछे वाली गली से आना
गुस्से में मुझे खूब खरी खोटी सुनाना
मेरा बस तुम्हे देखना और मुस्कराना
और तुम्हारा वो झट से पिघल जाना
और हमारी चाय पे चर्चा शुरू हो जाना...

अच्छा वो याद है क्या तुम्हे...............

कभी  चाय  में चीनी  ज्यादा हो  जाना
फिर तुम्हारा उसमे और दूध मिलवाना
कभी वो अदरक का टुकड़ा  रह जाना
और  तुम्हारा  एकदम  से उछल जाना
तुम्हारा  उस  चाय  वाले से लड़ जाना
तुम्हे  दिखाने को  मेरा भी  भिड़ जाना
मेरा प्यार से समझाना तुम्हारा मान जाना...

अच्छा वो तो बिल्कुल याद होगा.....

वो तेज पत्ती वाली  चाय की मिठास
जब हाथ में चाय  और हम तुम पास
चाय पीते पीते  ही  लड़ना अनायास
बेवजह सुनना एक दूजे की बकवास
तुम्हारा  वही  लाल रंग वाला लिबास
मेरा तुम्हारी  तारीफ़ करने का प्रयास
हाँ ये सब ही बनाते थे उस चाय को ख़ास..

अच्छा वो याद दिलाऊं क्या......

चाय के इंतज़ार में  न कटती रातें
चाय के  बहाने  बढ़ती  मुलाकातें
वो चाय की चुस्की और ढेरों बातें
जब चाय में  दोनों बिस्कुट डुबाते
तुम्हारी सुनते  और अपनी बताते

हम आज भी उस दुकान पे हैं जाते
पर तुम साथ नही इसलिये दो चाय नही मंगवाते...

खैर छोड़ो अब क्या जिक्र करना उन बातों का चलो चाय पीते हैं..☕️☕️☕️☕️

Tuesday 20 March 2018

हिज़्र की रात

ये हिज़्र  की  रात है  लंबी चलेगी
टीस है  दिल में बहुत ही  खलेगी

जमाने से नज़रें मिलायें भी कैसे
मेरी इन आँखों में नमी सी रहेगी

चलेंगी हवायें  तो  पहले के जैसी
मगर इनमे उसकी महक ना रहेगी

चिराग़ों का क्या है ये जलते रहेंगे
मगर इस लौ में  रौशनी  ना रहेगी

चमन में सितारे भी बिखरे हुये  हैं
मगर इनमे उसकी कमी सी रहेगी

अंधेरों में खुद को कैद तो  कर लूँ
यादों की खिड़की खुली ही रहेगी

'मौन' हैं  ग़ज़लें  लफ्जों की कमी है
अब उसके बिना महफ़िल ना जमेगी

Friday 16 March 2018

आशिक़ की नींद- ashiq ki neend

ना जगाओ नींद से उस आशिक़ को
आज कई दिनों बाद सोया लगता है

कुछ आँखों में  उसकी  नशा  भी है
मय में  खुद  को  डुबोया  लगता है

देखो  गीला है  तकिया भी  उसका
आज तो जी भर के  रोया लगता है

शायद कुछ दर्द कम हुआ है उसका
आज ही जख्मों को धोया लगता है

आज बेफिक्र है जैसे कुछ बाकी नही
इश्क़ में देखो सब कुछ खोया लगता है

Sunday 11 March 2018

तो क्या हो गया- to kya ho gaya

हाँ मचला था कुछ  पल को  दिल फिर सो  गया
आज उससे फिर मिल भी लिये तो क्या हो गया

मोहब्बत की राहों में  हर किसी को भटकना  है
सामना उनसे अगर हो भी गया तो क्या हो गया

माना  की  ज़ख्म  अभी अभी  तो भरा  था  मेरा
उसके मिलने से हरा हो भी गया तो क्या हो गया

सच है की उसे भुलाने को वो गलियां छोड़ आया
उसने भी इसी शहर  घर बनाया  तो क्या हो गया
 
बस  अभी  तो मुस्कुराना  शुरू ही किया था मैंने
फिर इन आँखों में  आंसू आया  तो  क्या हो गया

कुछ  मुझे  भी  अब  उजाले  रास  आने  लगे  थे
'मौन'  फिर  अंधेरो  में  बिठाया  तो  क्या हो गया

अपनी बारी का इंतज़ार- apni baari ka intezaar

हर रोज टूटे अरमानों को हम रफ़ू करते हैं
रात ख्वाबों में फिर उन्ही से गुफ़्तगू करते हैं

चाहत तो थी आफताब से नजरें मिलाने की
अभी दर्द-ए-तन्हाई में मगर अंधेरों से डरते हैं

समंदर में गोते लगाने को यूँ तो बेताब हम हैं
अभी साहिल पे खड़े रोज लहरों से झगड़ते हैं

हौसलों का क्या इन्हें आसमान छोटा लगता है
ये जो पंख बढ़ गये हैं इन्हें हम रोज कतरते हैं

चेहरा जो देखा है उसे मेरा ना समझो अभी
मतलबी दुनिया में हम भी नकाब बदलते हैं

ना जाने किस रोज मिल जाये मंजिल मेरी
अभी 'मौन' खड़े बारी का इंतज़ार करते हैं

अधूरी कविता

इतना कुछ कह कर भी बहुत कुछ है जो बचा रह जाता है क्या है जिसको कहकर लगे बस यही था जो कहना था झगड़े करता हूँ पर शिकायतें बची रह जाती हैं और कवि...