Wednesday 31 March 2021

रश्क़

 रोज इसी वक़्त छत पर आओगी

तो पड़ोसी कानाफ़ूसी करेंगे
पकड़ी तुम जाओगी
और शामत मेरी आएगी

बिन बात मुस्कुराती हो
बेवज़ह चौंक जाती हो
जो किसी को भी शक हुआ
अपनी जासूसी हो जाएगी

अब आ ही गयी हो
तो बालों को खुला छोड़ो
चूम के ऊँगली उछाली है मैंने
गालों से ज़ुल्फें हवा उड़ाएगी

रोज रोज चुनर लहराओगी
तो बादलों को तकलीफ़ होगी
वो गुस्से में बड़बड़ाएंगे
और बारिश हो जाएगी

इन बालियों को कहो
इतना भी ना चमकें
कहीं सूरज जल गया अगर
मोहल्ले में रोशनी ना आएगी

यूँ जोर जोर गुनगुनाओगी
तो कोयल को रश्क़ होगा
वो बिगड़ी तो महीनों तक
फ़िर प्रेम गीत ना सुनाएगी

सोचो किसी शाम ऐसा भी हो
तुम आओ और मैं ना मिलूँ
बमुश्किल रात कटेगी तुम्हारी
बेचैनी रहेगी, नींद नही आएगी

मैंने तो लिख दी है कविता
अब तुम भी एक चिट्ठी लिखो
कब तक तुम्हारे दिल का हाल
मुझसे तुम्हारी सहेली बताएगी।

अमित 'मौन'


P.C.: GOOGLE


Tuesday 2 March 2021

परफ्यूम

'मैं तो यही चाहूँगी कि हम बीच बीच में मिलते रहें, बाकी तुम्हारी मर्जी' ये उसकी आख़िरी लाइन थी जो मेरे कानों ने सुनी थी। उसके बाद हम कभी नही मिले।

एक आम आशिक़ की तरह मैंने भी कई बार उससे कहा था कि तुम आँखों से जादू टोना करती हो क्योंकि मैं जब भी इन्हें देखता हूँ बस खो जाता हूँ। सच बताऊँ तो उसकी आँखों को मैंने इतनी शिद्दत से देखा है कि उनका जादू मेरी आँखों में उतर आया है। मैं जब भी अपनी आँखें बंद करता हूँ तो उसका चेहरा मेरी आँखों के सामने आ जाता है। कई बार हम खुली आँखों से उतना सब नही देख पाते जितना आँखें बंद करके देख लेते हैं।

उसे सिगरेट से सख़्त नफ़रत थी और उसके जाने के बाद मैंने पीना ज्यादा कर दिया। जलती सिगरेट की चिंगारी देख मुझे यूँ लगता जैसे ये आग नही मैं उसका दिल जला रहा हूँ। इधर सिगरेट ख़त्म होती उधर मेरे बदले की भावना। कई बार आग सिर्फ़ जलाने के नही बुझाने के काम भी आती है।

मैंने बोलना बंद कर दिया था क्योंकि मैं चीखना चाहता था और चीखने वाले को पागल घोषित कर दिया जाता है। मैं पागल नही था बल्कि मैं तो अब पागलपन के दौर से बाहर आया था। कई बार हम किसी इंसान के इतने अंदर समा जाते हैं कि उसके बाहर हमें कुछ दिखाई देना बंद हो जाता है। फ़िर एक दिन बेहोशी टूटती है और हम ख़ुद को बीच सड़क पर पड़ा हुआ पाते हैं। पर उस दिन कोई हमें उठाने वाला नही होता क्योंकि इस दुनिया का उसूल है कि यहाँ गिरते हुए को संभालने वाले तो मिल जाएंगे पर जो गिरा है उसे उठाने के लिए कोई नही झुकना चाहता। मैंने ख़ुद को संभाला भी है और उठकर आगे भी चल पड़ा हूँ।

ख़ैर मेरे नंगे पाँव अब उस नर्म घास पर कभी नही चलना चाहते। उस जमीन पर चुभे काँटों के घाव अब सूख चुके हैं।

ये सारा दोष इस परफ्यूम की शीशी का है जो पता नही कैसे बची रह गयी और मुझे ये सब याद दिला गयी। शायद उसके जाने के बाद मैंने कभी परफ्यूम नही लगाया।

अमित 'मौन'


P.C. : GOOGLE


अधूरी कविता

इतना कुछ कह कर भी बहुत कुछ है जो बचा रह जाता है क्या है जिसको कहकर लगे बस यही था जो कहना था झगड़े करता हूँ पर शिकायतें बची रह जाती हैं और कवि...