Monday 22 February 2021

स्थिरता

कितनी ही दीवारें हैं

जिन्हें घर होने का इंतज़ार है

और मुसाफ़िर हैं कि
बस भटकते हुए दम तोड़ रहे हैं

जाने कितना ही वक़्त
खोजते हुए खर्च कर दिया
पर जो ढूँढ़ लिया
उसे संभालने का समय नही मिला

जल्द पहुँचने की ख़्वाहिश लिए
सुकून भरी छाँव छोड़ते रहे
पर कौन जाने इस लंबे सफ़र में
कोई और पेड़ मिले ना मिले

हम भागने के इतने आदी हो गए
कि रुकने को अस्थिरता समझने लगे
जबकि इस भाग-दौड़ का मक़सद
एक स्थायी पते की तलाश था

मन को इच्छाओं का ग़ुलाम बना लेना
अपने शरीर के साथ क्रूरता करना है।

अमित 'मौन'


P.C.: GOOGLE


Wednesday 17 February 2021

मिलना

हम मिले सालों बाद
और शिष्टाचार में पूछ ही लिया
कैसे हो?
जवाब में ठीक हूँ कहने की हिम्मत
चाहकर भी नही जुटाई जा सकी

क्योंकि ठीक वैसा अब कुछ भी नही

हम जानते थे कि
तितलियों के पंख तोड़ लिए गए हैं
उपवन के पक्षी अब उड़ना भूल चुके हैं
झरनों में पानी की जगह अब काई ने ले ली है
और रातों में अब सिर्फ चमगादड़ बचे हैं

हम महसूस कर सकते थे कि
नसों में लहू अब आहिस्ता दौड़ा करता है
हृदय की गति अब मंद पड़ गयी है
घड़ी की सुइयों ने घूमना छोड़ दिया है
और लौटने के सभी रास्तों पर
नया शहर बसाया जा चुका है

फ़िर भी हम सलीके से मुस्कुराए
और अपने असहाय होंठों को
बचा लिया एक और झूठ के पाप से ।

अमित 'मौन'


P.C.: GOOGLE


Tuesday 9 February 2021

अतीत

किसी अज्ञात शत्रु की तरह पीछे से वार करता है अतीत

बिल्कुल हृदयाघात की तरह आकर लिपट जाता है
स्मृतियों के हथौड़े जब चलना शुरू करते हैं
तो दिमाग़ की नसों को लहूलुहान कर देते हैं

कमीज़ पर लगा दाग हम जितना छुपाते हैं
वो उतना ही गाढ़ा होता जाता है
किशोरावस्था में आई मोच को
हम जवानी में नज़रअंदाज जरूर करते हैं
पर उसका दर्द बुढ़ापे में जीना दूभर कर देता है

हम अपने लिए कितना ही अलग रास्ता क्यों ना चुन लें
रास्ते में वो चौराहा जरूर जाता है
जहाँ पिछली रात किसी बुढ़िया ने टोटका किया होता है

कुछ हादसे नींदों के दुश्मन होते हैं
और कुछ निशान हमेशा के लिए बदन पर छपे रह जाते हैं।

अमित 'मौन'


P.C.: GOOGLE


Wednesday 3 February 2021

संभावना

 मेरी उदास कविताओं को

जीवंत बना देती हो तुम
पढ़ने के अनोखे अंदाज से

जीने की मृत इच्छा को
पल भर में बदल देती हो
कंधे पर हाथ भर रख कर

किसी नास्तिक को भी
मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ा दो
ईश्वर की भेजी एक दूत हो तुम

और मैं ख़ुद के होने की वजह ढूँढ़ता
लौह पुरुष होने का ढोंग रचता हुआ
हार जाता हूँ तुम्हारी चुम्बकीय शक्ति से

गुरुत्वाकर्षण का मुख्य केंद्र हो तुम
जो खींच लेती हो मेरी हर निराशा को
कितना कुछ है तुम्हारी बातों की पोटली में
जो हर बार जीने का कारण ढूँढ़ लाती हो

सर्द रातों में गिरी ओस की आख़िरी बूँद हूँ मैं
और मेरा भार उठाए मुलायम हरी दूब हो तुम
तुम्हारे छोड़ने भर तक बचा है अस्तित्व मेरा

दुःखों से भरा, हारा हुआ पितामह हूँ मैं
मृत्यु शैया पर लेटा
सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा में
और तुम हो जो आमादा हो
पृथ्वी का अगला चक्कर रोकने पर

दुनिया में असंभव कुछ भी नही
बस इसी संभावना का संचार कर
बचा लेती हो मुझे हर बार, कितनी बार।

अमित 'मौन'

P.C.: GOOGLE


अधूरी कविता

इतना कुछ कह कर भी बहुत कुछ है जो बचा रह जाता है क्या है जिसको कहकर लगे बस यही था जो कहना था झगड़े करता हूँ पर शिकायतें बची रह जाती हैं और कवि...