Tuesday 30 July 2019

डायरी

आज पहली बार इस डायरी में कुछ लिखने जा रहा हूँ।

तुम अक़्सर कहा करती थी ना कि अगर तुम्हें लिखने का इतना ही शौक है तो डायरी में लिखना क्यों नहीं शुरू कर देते और इसीलिए तुमने ये डायरी मुझे तोहफ़े में दी थी।

मैं अक़्सर ये कहते हुए तुम्हारी बात टाल जाया करता था कि भला इस मोबाइल के ज़माने में डायरी में कौन लिखा करता है...आख़िर हम भी तकनीकी बदलाव के दौर से गुजर रहे हैं तो हमें भी तकनीक के साथ चलना होगा।

पर आज सोच रहा हूँ कि काश तुम्हारी बात उस समय मान ली होती तो अच्छा होता। वो क्या है कि आज अचानक ही मेरा मोबाइल ख़राब हो गया और ऐसा बंद हुआ कि अब खुलने का नाम नही ले रहा।

मेकैनिक कहता है कि खुल तो जाएगा मग़र इसका सारा डाटा उड़ जाएगा। मेरे ख़्यालों और जज्बातों को (जो इस मोबाइल के नोटपैड में मैंने समेट कर रखे हुए थे) इनकी भाषा में डाटा कहते हैं।

अब मेरा वो डाटा नही रहा जिसमें मैंने वो सब लिखा था जो तुम्हारे ना होने के दौरान मैंने महसूस किया था। मेरा वो हर दर्द, हर आँसू, सारी पीड़ा, संवेदनाएं, भावनाएं और जाने क्या क्या जिनसे मैं होकर गुजरा था। जिनको मैं किसी से कह नही सकता था (हाँ हाँ तुमसे भी नही), वो सब उस डाटा के साथ उड़ गया या यूँ कहूँ ख़त्म हो गया।

बस नहीं ख़त्म हुआ तो तुम्हारे साथ बिताए वक़्त की ख़ुशी और तुम्हारे जाने का पछतावा। काश ये सब भी एक डाटा होता जो कभी मेरे ज़हन से उड़ पाता।

ख़ैर ये डाटा तो फ़िर से बन जाएगा क्योंकि उन सभी हालातों से मुझे फ़िर से गुजरना है, पर इस बार मैं सब कुछ डायरी में लिखूँगा।

वैसे डायरी भी तो खो सकती है ना?

पर शायद इस डाटा को ये नही पता कि एक डाटा मेरी रूह, मेरी आत्मा, मेरे दिल और मेरे दिमाग़ में भी स्टोर है, और वो कभी नही उड़ेगा। शायद कभी नही...

मेरे जीते जी तो नही......

अमित 'मौन'

Sunday 28 July 2019

पहली बारिश

उफ़्फ़ ये पहली बारिश...

ये पहली बारिश भी ना बड़ी जिद्दी होती है, हर बार चली आती है, अपने उसी पुराने रूप में। बचपन से आज तक सब कुछ बदल गया, लोग बदल गए, गाँव बदल गए, शहर बदल गए और तो और रिश्तों के रूप भी बदल गए। पर इसे देखो आज तक नही बदली।

चली आती है हर बार वही नज़ारे लेकर, वही काले बादल, वही इंतज़ार करवाना, वही बिजली का कड़कना, वही ना चाहते हुए सबको भिगोना और फ़िर वही यादों का जखीरा लाकर सिरहाने पटक देना।

देखो आ गयी ये इस बार भी वही स्मृतियों की संदूक लिए। अब खोलो ये संदूक और निकालो वही पहली बारिश की यादें जहाँ सरोजिनी मार्किट में शॉपिंग बैग से सर ढक कर भीगने से बचने की नाकाम कोशिश करती हुई एक लड़की और उसी मार्किट के किसी कोने में छतरी टिकाये खड़ा हुआ एक शर्मीला सा लड़का। वैसे वो लड़का समझदार भी था, आख़िर बारिश आने के अंदेशे से पहले ही छाता लेकर गया हुआ था।

हाँ पर वो लड़की कुछ ज्यादा ही बेफ़िक्र और बेबाक थी, भला ऐसे भी कोई लड़की किसी अनजान लड़के की छतरी के नीचे आकर खड़ी होती है क्या?

पर पता नही क्यों उस दिन बारिश बहुत देर तक हुई थी, शायद वो भी यही चाहती थी कि उसके ख़त्म होने से पहले उन दोनों के बीच कुछ शुरू हो जाये। आख़िर उसको भी तो अच्छा लगता होगा कि जब वो चली जाए तब भी उसको लोग किसी न किसी बहाने से याद करें।

काश वो बारिश उस दिन आती ही नही या फ़िर जल्दी ख़त्म हो गयी होती तो पिछली बारिश में तुम्हे अपने पति के साथ बालकनी में चाय पीता देखकर मैं भीगा ना होता।

और आज इस बारिश में अपनी पत्नी के साथ टोमैटो सूप पीते हुए मुझे उस बारिश की याद नही आती।

उफ़्फ़ ये बारिश भी ना...जाने कब तक भिगाएगी...।

अमित 'मौन'

Friday 19 July 2019

तुम्हें लिखूँगा बस कविता में

तेरी याद में डूबा हूँ पर
ग़म के प्याले नही भरूँगा
सुन लूँगा इस जग के ताने
नाम तेरा मैं कभी ना लूँगा

बढ़ जाऊंगा तन्हा ही अब
राह तुम्हारी नहीं तकूँगा
यादों की जलती चिंगारी
सिरहाने अब नही रखूँगा

रो लूँगा काली रातों में
आँसू भी गिरने ना दूँगा
तोहफ़े सारे सभी निशानी
आँखों से ओझल कर दूँगा

पढ़ लूँगा मैं उतरे चेहरे
प्रेम कहानी नही पढूँगा
खो दूँगा मैं जो भी पाया
पर क़िस्मत से नही लड़ूंगा

सह लूँगा ये ग़म-ए-जुदाई
पर होंठों पे 'मौन' रखूँगा
तुम्हें लिखूंगा बस कविता में
हर पन्ने पर साथ रहूँगा

अमित 'मौन'

Monday 15 July 2019

कविताएं

मैंने आँखों में झाँक कर इजाज़त लेनी चाही मगर हर बार उसने नजरें मिलने से पहले ही पलकें झुका ली...
आँखों की सहमती ना मिल पाने के कारण मेरे होंठों ने मौन रहना चुना...
इज़हार के बाद उसके इंकार या स्वीकार के असमंजस ने मुझे प्रेम पत्र लिखने से रोक दिया...
मैंने अपने मन के भावों को कविता का रूप दे दिया और रच डाली कई कविताएं....
मैंने कविताओं में वो सब लिखा जो मैं उससे कहना चाहता था.....
उसने वो कविताएं पढ़ीं और उसे कवि से प्रेम हो गया....

अब मैं उसे महसूस करके कविता लिखता हूँ और वो कविता पढ़ती हुई मुझे महसूस करती है....

अमित 'मौन'

Wednesday 10 July 2019

चुनाव

चुनाव:
मुझे बुद्ध के मार्ग पर चलना था तो मैंने कृष्ण का उपाय चुना....

जैसे कृष्ण ने संधि और युद्ध में से युद्ध को चुना ताकि शांति लाई जा सके,  वैसे ही मैंने तुम्हें ना पाने की व्यथा और तुम्हारे चले जाने के दुःख में से किसी एक को चुनने के क्रम में अपने भीतर चल रहे द्वंद पर विजय पाते हुए तुम्हे जाने देने की अनुमति को चुना..

ताकि उम्र भर इस भ्रम में जी सकूँ की शायद तुम मेरे लिए बनी ही नही थी और साथ में ये सुकून भी रहे कि तुमने अपना चुनाव स्वयं किया और शायद तुम खुश होगी.....

समर्पण की प्रक्रिया का पहला चरण पार करते हुए मैंने तुम्हारी ख़ुशी को अपनी प्रसन्नता का कारण मान लिया.....

अमित 'मौन'

Sunday 7 July 2019

पहला ख़त

Hi,

कैसी हो?

ठीक ही होगी.....ठीक क्यों मजे में होगी..मजा ही आता है ना तुम्हे मुझसे दूर रहकर मुझे तड़पाने में...

पर देखो अब मैं तड़पता नही हूँ और मेरी बेकरारी भी ख़त्म हो चुकी है....जानती हो क्यों?

क्योंकि मैंने खुद को समझा लिया है कि अब तुम नही आने वाली..पर सच बताऊँ कभी कभी पता नही क्यूँ लगता है काश आ जाती तो....

तुम कहती थी ना एक दिन नही रहूँगी तब पता चलेगा मेरी अहमियत का...तो सुनो इतने दिनों में मुझे सब पता चल गया है..अब तो आ जाओ..

मैं सोचता हूँ की ऐसा कह दूँ तुमसे...पर मुझे पता है तुम नहीं आओगी..

अच्छा सुनो तुम्हारा एक पसंदीदा खेल था जिसमें तुम कहती थी कि 'उल्लू बनाया बड़ा मजा आया' मैं ना आजकल खुद को ही उल्लू बनाया करता हूँ...

पता है कैसे?

हर रात मेरी छत की उत्तर दिशा में जो तारा निकलता है ना उसे मैं तुम समझ के बातें करता हूँ और पता है दिल ने तो सच भी मान लिया कि वो तुम ही हो..

हाँ गुस्सा हो इसलिये कुछ जवाब नही देती पर कम से कम रोज आती तो हो..ये भी तो प्यार है..अगर प्यार ना होता तो रोज रोज तुम कैसे आती? मतलब वो तारा रोज निकलता है और उसी जगह पर मिलता है..पर तुम चिंता मत करो..मुझे पता है वो तुम नही हो..वो तो बस तुम्हारी खुशी के लिये मैं आज भी उल्लू बन जाया करता हूँ....

और वो तुम हमेशा कहती थी ना कि चलो किसी दिन समंदर की लहरों से खेलते हैं..तब तो मैं नही गया कभी... पर अब अक्सर मैं समंदर किनारे जाया करता हूँ..

पूछोगी नही क्यों?

क्योंकि मुझे लगता है कि तुम शायद सागर के दूसरे किनारे से मुझे देख रही हो और अब जो लहरें इस किनारे आयेंगी उनके साथ तुम भी आओगी..हालाँकि मुझे पता है ऐसा कुछ नही होगा पर फिर भी मैं सोच लेता हूँ...

अच्छा सुनो ना अब ज्यादा कुछ नही लिखूँगा क्योंकि मुझे पता है तुम्हे पढ़ना तो है नही और अभी मुझे भी निकलना है इस दुनियादारी की भीड़ में खुद को खोने के लिये तो अभी बस इतना ही...बाकी अगले खत में..

अच्छा हाँ सुनो..अब मैं ऐसे ही हर बार समंदर किनारे खड़ा होकर ये खत जहाज बनाकर फेंका करूँगा...और जब तुम्हें ये मिल जाये तो तुम रात में उस तारे की रोशनी थोड़ी बढ़ा लेना...मैं समझ जाऊँगा की तुमने पढ़ लिया

और वो आख़िरी में लिखते हैं ना कि पत्र मिलते ही पत्र का जवाब जल्द देना..मैं वो बिल्कुल नही लिखूँगा... क्योंकि मुझे पता है तुम्हे जवाब तो देना नही...

पर मैं खत भेजता रहूँगा..

सारी उम्र तुम्हारी प्रतीक्षा में..

तुम बिन अधूरा..

'मौन' (ये नाम तुमने ही दिया था ना)

Friday 5 July 2019

ज़िंदगी कट जाएगी तुम्हारे बाद भी....

ज़िंदगी कट तो रही थी तुमसे पहले भी
ज़िंदगी  कट  जाएगी  तुम्हारे  बाद  भी

तुम आए तो यूँ लगा मानो खुशियाँ वो नाव बनकर आयी हों जो बस अभी मेरे हाथों में पतवार थमाकर मुझसे कहने वाली हों कि सुनो अब इस गम की दलदल से बाहर निकलो और चलो साहिल पर जहाँ एक नई दुनिया तुम्हारा इंतज़ार कर रही है...
पर तुम यादों की गठरी का बोझ और बढ़ाकर चले गए..अब इस गठरी को ताउम्र उन कंधों पर ढोना पड़ेगा जो पहले ही झुके हुए हैं....

तुम आये तो कुछ यूँ हुआ कि जैसे मुरझाए फूल को कोई ऐसी खाद मिल गयी हो जिससे वो कुछ और दिन इस उपवन में मुस्कुराता हुआ इस बगिया को महका सके...
पर फूल की क़िस्मत में आख़िर मुरझाना ही लिखा है...

तुम आये तो कुछ यूँ हुआ कि सूखे तालाब में फ़िर से पानी भर गया और जल बिन तड़पती मछलियों को कुछ और दिन की ज़िंदगी मिल गयी....
पर मछलियों की क़िस्मत में ज्यादा जीना कहाँ लिखा होता है...

तुम आए तो यूँ लगा कि अमावस की इस काली रात में सैकड़ों जुगनू मिलकर इस अँधेरे को बढ़ने से रोक लेंगे...
पर उन जुगनुओं में वो रोशनी नही जो रात से मुकाबला कर सकें....

पर ख़ुशी है मुझे की तुम आए क्योंकि तुम्हारे आने के बाद और जाने से पहले के बीच का जो वक़्त है ना उसमें मैंने एक और ज़िंदगी जी है...

और फ़िर मेरा क्या है...मेरे लिए तो बस इतना है कि...

एक  ज़िंदगी  में  कई ज़िंदगी  जी रहा हूँ मैं
दर दर की ठोकरें खाकर आँसू पी रहा हूँ मैं

अमित 'मौन'

Tuesday 2 July 2019

एक नज़र उसको देखूँ तो मर जाऊं

चाहता  मैं भी  हूँ  मैं  उधर जाऊं
है नही वो वहाँ फ़िर भी घर जाऊं

गाँव की सारी गलियों में देखा उसे
ढूँढ़ने  अब  उसे  मैं  शहर  जाऊं

इश्क़  का  दे रहे हो  मुझे  वास्ता
अब जो है ही नही कैसे डर जाऊं
 
मौत आगे खड़ी पीछे ग़म की झड़ी
अच्छा तुम ही कहो मैं किधर जाऊं

जिस्म  से  रूह  मेरी  जुदा हो  चली
एक नज़र उस को देखूँ तो मर जाऊं

अमित 'मौन'

अधूरी कविता

इतना कुछ कह कर भी बहुत कुछ है जो बचा रह जाता है क्या है जिसको कहकर लगे बस यही था जो कहना था झगड़े करता हूँ पर शिकायतें बची रह जाती हैं और कवि...