Tuesday, 17 July 2018

मिलन रूहों का....

काश..

मैं लिख सकता एक कविता
जो  मैं  हर  रोज  पढ़ता  हूँ
अंतर्मन के अनकहे जज़्बात
जो  मैं  हर  रोज  सुनता  हूँ

रोज थक कर जब  सो जाता है सूरज
और शीतल चाँदनी लिए आती है रात
चाँद  इशारों  में  बुलाता  है  पास मुझे
आओ बैठ  कर  करते हैं प्रेम की बात

मैं  हटा  देता  हूँ  नक़ाब  अपना
जो  दुनिया के  लिए  पहनता हूँ
दर्द  करता  हूँ  दफ़न  अंधेरों  में
मैं उस पहर जब उनसे मिलता हूँ

जुगनुओं से रोशनी ले कर उधार
उन  लम्हों  में  उजाले  करता हूँ
चिराग़ों  को  रखता हूँ  दूर उनसे
भड़क ना जाए कहीं लौ डरता हूँ

चूड़ियाँ  चिढ़ाती  हैं  करके शोर
पायल  भी  कुछ  गुनगुनाती  है
बहाने  से  झुमके ठीक  करने में
हिना हाथों की ज्यादा लुभाती है

हवाओं को  इजाज़त  देता  नही
खुली खिड़की से अंदर आने को
साँसों  का  तूफ़ान  ही  काफी है
हमें आगोश में उड़ा ले जाने को

एहसासों के  पर्दों से  झाँकते
उन चंद  लम्हों को समेट कर
फ़िर होता है मिलन रूहों का
एक शर्म की चादर लपेट कर

दो जिस्म एक जान हो जाने की
उस पल होती सार्थक परिभाषा
सुखद  सुबह भी जुदा करे फिर
लिए पुनर्मिलन की  अभिलाषा

No comments:

Post a Comment

अधूरी कविता

इतना कुछ कह कर भी बहुत कुछ है जो बचा रह जाता है क्या है जिसको कहकर लगे बस यही था जो कहना था झगड़े करता हूँ पर शिकायतें बची रह जाती हैं और कवि...