Friday, 30 November 2018

सपनों की चादर...

सपनों की चादर और पलकों का पहरा
जो  नैनों  ने  देखा  वो  तेरा  था  चेहरा

था  जाड़ों का मौसम  और रात सुहानी
एक भीनी सी ख़ुशबू ज्यों रात की रानी

वो चन्दा भी सोया था बादल के पीछे
एक तारे ने झांका भी आकर के नीचे

उन पेड़ों की शाखें भी कबसे जगी थी
फिर  ठंडी  हवाएँ  भी  बहने  लगी थी

वो राहें भी बरसों से कितना जली थी
उस शब में तू जिनपे मुझसे मिली थी
 
वो मेरा था साया जो पीछे खड़ा था
मधुर  मिलन  को  मैं आगे  बढ़ा था
 
उस नदिया के पानी में अपनी परछाई
देखा  जो ख़ुद को  तू ख़ुद ही  घबराई

तेरे नूर से रौशन वो रात हुई थी
लब ना खुले थे पर बात हुई थी

आँखों से सावन भी जमके था बरसा
उन बूँदों से पूछो मैं कितना था तरसा

पहिया समय का भी थम सा गया था
बदन में लहू भी तो  जम सा गया था

क़िस्मत ने अपनी फिर धोखा दिया था
मिलने से  हमको  फ़िर  रोका गया था

अज़ब सी एक आहट ने मुझको जगाया
आइना  हक़ीक़त  का  मुझको  दिखाया
 
मैं तो वहीं था पर तू जा चुकी थी
धड़कन बेक़ाबू थी सांसें रुकी थी

अब मैं हूँ, अंधेरा  और मेरी  तन्हाई
आज फिर से रुलाने तेरी याद आयी

जिंदगी...

खुल के जियो तो मजा है ज़िंदगी
गिनो ग़म को तो  सजा है ज़िंदगी

वादों कसमों को भुला सको तो
संग हालातों के रजा है ज़िंदगी

दिन रात बदलते रिश्तों के संग
बिन यारों के बे मजा है ज़िंदगी

हर  पल नई  एक  सीख  है  देती
हर दिन लगे एक कज़ा है ज़िंदगी

आदम के सजदे 'मौन' करे क्यों
रब से दुआ  इल्तिज़ा है ज़िंदगी

Wednesday, 21 November 2018

चला था जहाँ से...

चला था  जहाँ से  वहीं हूँ  खड़ा 
हैं कदम मेरे छोटे या रस्ता बड़ा 

उठाया  जिसे  और  सहारा  दिया 
उसी का था धक्का जो मैं गिर पड़ा 

आइना हक़ीकत का आँखों में था 
मैं दिल से गिरा और नज़र में चढ़ा 

रक़ीबों की गिनती भी  कम न हुई 
फिर इतने बरस मैं हूँ किससे लड़ा 

'मौन'  जो टूटा  तो  रिश्ता  भी  छूटा 
ना अब से है झुकना मैं जिद पे अड़ा 

Sunday, 18 November 2018

मैं ख़ुश हूँ जो मैं आहिस्ता चल रहा हूँ


मैं ख़ुश हूँ जो मैं आहिस्ता  चल रहा हूँ
वो हैरां हैं फ़िर भी आगे निकल रहा हूँ

वक़्त लेता है करवट कई थमने से पहले
ये  गुमां है  मुझे  मैं वक़्त  बदल  रहा हूँ

बनके  पर्वत रहा  मैं  भी  बरसों बरस  यहीं
अब चली ये बयार ऐसी मैं भी पिघल रहा हूँ

भटका जो सफ़र में तो राहों से दिल लगा बैठा
कुछ ठोकरें  थी ऐसी  अब तक  संभल रहा हूँ

वो दुबक गये सभी  जो  शेरों की खाल में आए
मैं चालाक भेड़िये सा जाके अब निकल रहा हूँ
 
'मौन' हो गए वो बस मौसम के तूफां निकले
मैं वो दरया  जो अब तक  मुसलसल रहा हूँ

Thursday, 1 November 2018

दायरों से निकलकर...

दायरों से निकलकर तुझे ख़ुद ही को आना होगा 
बदन पे  जमी धूल तुझे  ख़ुद ही को हटाना होगा 

परिंदों को सिखाता नहीं कला कोई उड़ान की 
पंख हौसलों के लगा ख़ुद ही को उड़ाना होगा 

दिखाने को  आईना खड़ा  हर शख़्स  यहां राह में 
अपनी नयी पहचान अलग ख़ुद ही को बनाना होगा 

लब पे सदा मुस्कान तेरे ज़माने को दिखानी होगी 
आंसू वहीं  पलकों तले  ख़ुद ही को सुखाना होगा 

एक तुझमें है  क्या क्या छुपा  ख़ुद को जरा  बता 
ख़ुद की है औकात क्या ख़ुद ही को दिखाना होगा 

सूरज तपे  दिया जले  तब उनको  रौशनी मिले 
पाने को आसमां तुझे ख़ुद ही को जलाना होगा 

फिरता है बवंडर लिए तू ख़ुद की ही आग़ोश में 
'मौन' इस आवाज़ को ख़ुद ही को सुनाना होगा 

अधूरी कविता

इतना कुछ कह कर भी बहुत कुछ है जो बचा रह जाता है क्या है जिसको कहकर लगे बस यही था जो कहना था झगड़े करता हूँ पर शिकायतें बची रह जाती हैं और कवि...