रात ठहरी है उस पहर से
वो जब से गया इस शहर से
ना हुआ दीदार आख़िरी उसका
गिर गया हूँ अपनी ही नज़र से
ना रही मंज़िल की ख़्वाहिश
वापस लौटा मैं एक सफ़र से
प्यासा ही रहा हूँ बिन उसके
अब तंग हूँ मैं साक़ी के ज़हर से
है अधूरी हर नज़्म बिन उसके
रहती हैं ग़ज़लें भी दूर बहर से
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