Thursday, 27 June 2019

उम्मीदें

उम्मीदें:

हौसलों की कुछ स्वरचित कहानियाँ पढ़ने के बाद कभी कभी हम इतने ज्यादा आशावादी हो जाते हैं कि हमें लगने लगता है कि हम भरी बरसात में उफ़नती नदी के बहाव को मिट्टी डाल कर रोक सकते हैं और हम ऐसा करने भी लगते हैं!

मगर बार बार मिट्टी डालने के बाद जब वो हर बार तेज बहाव के दबाव में आकर बह जाती है तब जाकर हमें एहसास होता हैं कि हमनें मिट्टी से उम्मीदें कुछ ज्यादा ही लगा ली थी!

प्रेम कथाओं को पढ़कर हम अक़्सर यही गलती दोहराते हैं और फिर उम्मीदों के साथ साथ हम ख़ुद भी टूट जाते हैं!

अमित 'मौन'

Wednesday, 26 June 2019

सब हैं उसके रूप के क़ायल

छोटी  बिंदी  बड़ा  सा  गजरा
छम छम करती उसकी पायल
सरके  चूनर  कांधे  से  जब
तिल गर्दन का करे है घायल

चले  तो  चूड़ी  शोर  मचाए
लबों की लाली करे है पागल
नज़र  लगे  ना  उसे जहां की
मैं तोहफ़े में दे आया काजल

अमित 'मौन'

Sunday, 23 June 2019

बढ़ता जा रे

प्यार में धोखा बात पुरानी
ग़म काहे को  करता प्यारे

नदी, धरा और  ऊँचे पर्वत
सब के सब ही ग़म के मारे

बरखा, बारिश, ओस की बूंदें
नम  आँखों  के  यही  नज़ारे

हुस्न यार का झूठी बातें
देख जरा तू चाँद सितारे

क्षमा, त्याग ही असली पूँजी
रूह  तेरी  भी  यही  पुकारे

नफ़रत, गुस्सा और मायूसी
छोड़ के इनको बढ़ता जा रे!

अमित 'मौन'

Wednesday, 19 June 2019

मैं भी उस पर मरता हूँ

अक़्सर ही मैं दिल को अपने, ये समझाया करता हूँ
तू मरता है जिस पर पगले, मैं भी उस पर मरता हूँ

साँझ सवेरे उसी चौक पर, जाने मैं क्यों जाता हूँ
यार मेरे हों या हों दुश्मन, सबसे मैं छुप जाता हूँ
चौराहे पर बैठा अक़्सर, राह उसी की तकता हूँ
तू मरता है जिस पर पगले, मैं भी उस पर मरता हूँ

मीर से लेकर ग़ालिब तक, हाँ सबको मैंने पढ़ डाला
मुझको अब कंठस्थ हो गयी, बच्चन जी की मधुशाला
अपनी कोई नज़्म बना कर, पेश उसे ही करता हूँ
तू मरता है जिस पर पगले, मैं भी उस पर मरता हूँ

फूलों की किस्मों को मैंने, थोड़ा थोड़ा पहचाना
काँटों में भी गुल खिलते हैं, अब जाकर मैंने जाना
कीचड़ में जा जाकर अब मैं, कमल चुराया करता हूँ
तू मरता है जिस पर पगले, मैं भी उस पर मरता हूँ

रोज शाम को बादल में अब, रंग दिखाई देते हैं
कोयल की कू कू में मुझको, गीत सुनाई देते हैं
अँगने में ना मुझको ढूँढ़ो, मैं छत पर ही रहता हूँ
तू मरता है जिस पर पगले, मैं भी उस पर मरता हूँ

बादल से मैं करूँ गुज़ारिश, बारिश जल्दी ले आना
फूलों से मैं करूं सिफ़ारिश, बगिया ऐसी महकाना
भँवरे से गाने सुन कर, तितली से बातें करता हूँ
तू मरता है जिस पर पगले, मैं भी उस पर मरता हूँ

कँगना, झुमका, पायल, बिंदिया, सारे तोहफ़े लाऊँगा
चाँद सितारे रश्क करेंगे, मैं ख़ुद ही उसे सजाऊँगा
नज़र कहीं ना लगे जहां की, अब मैं डरता रहता हूँ
तू मरता है जिस पर पगले, मैं भी उस पर मरता हूँ

अक़्सर ही मैं दिल को अपने, ये समझाया करता हूँ
तू मरता है जिस पर पगले, मैं भी उस पर मरता हूँ

अमित 'मौन'

Tuesday, 18 June 2019

बदलाव

लड़के अक़्सर लापरवाह होते हैं, उन्हें फ़र्क नही पड़ता समाज के किसी नियम-कानून से..उनके लिए समाज उनका सबसे बड़ा पक्षधर है...वो ख़ुद को सुरक्षित महसूस करते हैं....

मगर प्यार में पड़े हुए लड़के समझदार हो जाते हैं, उन्हें ज्ञान हो जाता है समाज में फैली हर बुराई का..वो समाज में फैली उस बुराई को दूर करना चाहते हैं जिसका वो हिस्सा हैं....वो ढाल बन कर सुरक्षित रखने का प्रयास करते हैं अपनी प्रेमिका को....वो चिंताग्रस्त होकर असुरक्षित महसूस करने लगते हैं.....


लड़कियाँ अक़्सर व्यवस्थित होती हैं, उन्हें अच्छी तरह पता होता है समाज के बनाए कायदों का..वो क़ायदे जो उसके लिए बेड़ियाँ तैयार करते हैं....वो ख़ुद को असुरक्षित महसूस करती हैं....

मगर प्यार में पड़ी लड़कियाँ अकस्मात ही भोली हो जाती हैं, वो दुनिया को देखती हैं प्रेम के चश्मे से...जहाँ से हर व्यक्ति और वस्तु में सिर्फ और सिर्फ प्रेम ही नज़र आता है..वो प्रेमी की बाहों में कैद होकर ही ख़ुद को रिहा समझती है....वो ख़ुद को सुरक्षित महसूस करती हैं....

प्रेम दोनों में बदलाव लाता है...

हमें अगर समाज में बदलाव लाना है तो हमें प्रेम करना होगा...

अमित 'मौन'

Monday, 10 June 2019

उस गुल का मैं हूँ माली

तिल काला  गोरे गालों पे, उस पर  होंठों की लाली
चले तो ऐसी कमर हिले, हो जैसे गुड़हल की डाली

नैन कटीले जिगर को चीरें, पास बुलाए है बाली
ज़ुल्फ़ उड़े तो हवा चले, आए बागों में हरियाली

झुकें जो पलकें दिन ढल जाए, हँसे तो फैले खुशहाली
पैजनिया की  धुन पे  नाचे, फ़िज़ा भी  होके  मतवाली

अधरों का आकर्षण है, ज्यों भरी हुई  मधु की  प्याली
रश्क करे  चँदा भी जिससे,  उस गुल का  मैं हूँ  माली

अमित 'मौन'

Sunday, 9 June 2019

कठोर निर्णय

सहनशीलता की सीलन धीरे धीरे दिल की दीवारों को कमजोर बना देती है..
समझदारी का सीमेंट बार बार लगाने पर अविश्वास की एक मोटी परत बन जाती है..
अंततः आँखों का पानी सूख जाता है और प्रेम पपड़ी बन कर झड़ने लगता है..
अस्तित्व का आशियाना बचाए रखने के लिए जरूरी है की भावनाओं के भँवर में ना फँसें..

मोह के मायाजाल से परे मन में उमड़ते भावों को तरजीह दें और मस्तिष्क को मेहनत करने का मौका दें..

क्योंकि 'कुछ कठोर निर्णय जीवन को अत्यंत सरल बना देते हैं'

अमित 'मौन'

Thursday, 6 June 2019

विश्वास

विश्वास :

गुम है कहीं मतलब की अलमारी में
धोखे की दीवारों के बीच
पैसों की आड़ में छुपा हुआ....

आख़िरी बार देखा गया था उसे
लंगड़ा कर एक पैर पर चलते हुए

अब शायद गिर गया होगा कहीं
कभी ना खड़ा होने के लिए......

आने वाले समय में विश्वास को अतीत की
किसी किवदंती के रूप में याद किया जाएगा...

अमित 'मौन'

अधूरी कविता

इतना कुछ कह कर भी बहुत कुछ है जो बचा रह जाता है क्या है जिसको कहकर लगे बस यही था जो कहना था झगड़े करता हूँ पर शिकायतें बची रह जाती हैं और कवि...