हम सभी जानते हैं कि महाभारत के युद्ध में पांडवों के साथ सम्मिलित होते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने वचन दिया था कि वो युद्ध में शस्त्र नही उठाएंगे परंतु युद्ध के मध्य एक ऐसा क्षण भी आया था जब कृष्ण को अपना वचन भूलकर शस्त्र उठाने के लिए विवश होना पड़ा था।
कृष्ण के बहुत समझाने पर भी अर्जुन मोहवश अपने कौरव रूपी संबंधियों पर पूरी शक्ति से प्रहार नही कर पा रहे थे। वहीं दूसरी तरफ़ भीष्म पितामह अपनी पूरी क्षमता से प्रहार करते हुए पांडव सेना का विनाश कर रहे थे। और जिस गति से पांडव सेना कम हो रही थी अगर वो चलता रहता तो जल्दी ही कौरव विजयी हो जाते।
श्रीकृष्ण से ये देखा नही गया और वो सुदर्शन लेकर स्वयं ही पितामह को मारने के लिए दौड़ पड़े।
उसी घटना को सरल शब्दों में आप तक पहुँचाने की कोशिश है ये रचना:
दिवस तीसरा युद्ध का आया
घोर तिमिर था मन में छाया
देख पितामह काल रूप में
कोई भी योद्धा टिक ना पाया
शिथिल पड़ी अर्जुन की इच्छा
मोह से पीछा छूट ना पाया
गांडीव की गर्जन अब तक रण में
कोई भी शत्रु सुन ना पाया
देख दशा पांडव सेना की
क्रोध कृष्ण का बाहर आया
कौन करेगा धर्म की रक्षा
जो पांडव मैं बचा ना पाया
कूद पड़े सहसा ही रथ से
चक्र सुदर्शन पास बुलाया
देखा क्रोधित रूप प्रभु का
भीषण भय कौरव में छाया
देख हाथ में चक्र प्रभु के
दुर्योधन शकुनि अकुलाए
पड़े चरण हैं कृष्ण के रण में
मन में सोच भीष्म मुस्काए
नतमस्तक हो जोड़ के कर को
बात हृदय की भीष्म बताए
सफ़ल हुआ है योद्धा होना
प्रभु स्वयं जो युद्ध को आए
सहसा भान हुआ अर्जुन को
प्रभु वचन को तोड़ रहे हैं
लाज बचाने पांडव कुल की
कृष्ण युद्ध को दौड़ रहे हैं
मनोदशा जो वश में होती
ना खोता में इतने साथी
जो मैं धर्म निभाता अपना
ये नौबत ना रण में आती
चरण पकड़ अर्जुन फिर बोले
क्षमा मुझे कर दो हे केशव
वचन सखा देता है तुमको
रखूँगा मैं कुल का गौरव
शपथ मुझे इस माटी की है
पूर्ण शक्ति से युद्ध करूँगा
विजय पताका फहराने तक
युद्ध भूमि से नही हटूँगा
सुने वचन अर्जुन के माधव
आलिंगन कर हृदय लगाए
संग अपने माधव को लेकर
अर्जुन वापस रथ पर आए
पश्चात हुआ जो युद्ध भयंकर
कोई भी कौरव बच ना पाया
आड़ वचन की प्रभु ने लेकर
धर्म बचाया रच कर माया
अमित 'मौन'
Image Source-Google
कृष्ण के बहुत समझाने पर भी अर्जुन मोहवश अपने कौरव रूपी संबंधियों पर पूरी शक्ति से प्रहार नही कर पा रहे थे। वहीं दूसरी तरफ़ भीष्म पितामह अपनी पूरी क्षमता से प्रहार करते हुए पांडव सेना का विनाश कर रहे थे। और जिस गति से पांडव सेना कम हो रही थी अगर वो चलता रहता तो जल्दी ही कौरव विजयी हो जाते।
श्रीकृष्ण से ये देखा नही गया और वो सुदर्शन लेकर स्वयं ही पितामह को मारने के लिए दौड़ पड़े।
उसी घटना को सरल शब्दों में आप तक पहुँचाने की कोशिश है ये रचना:
दिवस तीसरा युद्ध का आया
घोर तिमिर था मन में छाया
देख पितामह काल रूप में
कोई भी योद्धा टिक ना पाया
शिथिल पड़ी अर्जुन की इच्छा
मोह से पीछा छूट ना पाया
गांडीव की गर्जन अब तक रण में
कोई भी शत्रु सुन ना पाया
देख दशा पांडव सेना की
क्रोध कृष्ण का बाहर आया
कौन करेगा धर्म की रक्षा
जो पांडव मैं बचा ना पाया
कूद पड़े सहसा ही रथ से
चक्र सुदर्शन पास बुलाया
देखा क्रोधित रूप प्रभु का
भीषण भय कौरव में छाया
देख हाथ में चक्र प्रभु के
दुर्योधन शकुनि अकुलाए
पड़े चरण हैं कृष्ण के रण में
मन में सोच भीष्म मुस्काए
नतमस्तक हो जोड़ के कर को
बात हृदय की भीष्म बताए
सफ़ल हुआ है योद्धा होना
प्रभु स्वयं जो युद्ध को आए
सहसा भान हुआ अर्जुन को
प्रभु वचन को तोड़ रहे हैं
लाज बचाने पांडव कुल की
कृष्ण युद्ध को दौड़ रहे हैं
मनोदशा जो वश में होती
ना खोता में इतने साथी
जो मैं धर्म निभाता अपना
ये नौबत ना रण में आती
चरण पकड़ अर्जुन फिर बोले
क्षमा मुझे कर दो हे केशव
वचन सखा देता है तुमको
रखूँगा मैं कुल का गौरव
शपथ मुझे इस माटी की है
पूर्ण शक्ति से युद्ध करूँगा
विजय पताका फहराने तक
युद्ध भूमि से नही हटूँगा
सुने वचन अर्जुन के माधव
आलिंगन कर हृदय लगाए
संग अपने माधव को लेकर
अर्जुन वापस रथ पर आए
पश्चात हुआ जो युद्ध भयंकर
कोई भी कौरव बच ना पाया
आड़ वचन की प्रभु ने लेकर
धर्म बचाया रच कर माया
अमित 'मौन'
Image Source-Google
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (06-11-2019) को ""हुआ बेसुरा आज तराना" (चर्चा अंक- 3511) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर प्रस्तुति
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