तुम्हारी देह एक दीवार और काँधे खूँटी थे
पहली बार आलिंगनबद्ध होते ही
मैं वहीं टंगा रह गया
तुमने जुल्फों तले मुझे छुपाया तो लगा
उम्र भर की छांव मिल गयी
तुम्हारी हँसी मेरा हौसला बढ़ाती रही
तुम्हारे हृदय की धड़कन को
मैं जीवन संगीत समझता रहा
तुम्हारी पीठ पर उंगलियां फिराते हुए लगा कि
अब ऐसे ही चलते हुए ये जीवन का सफ़र कट जाएगा ।
फिर एक दिन तुमने कंधे हटा लिए
और मैं नीचे आ गिरा
मेरी आँखों से गिरे आँसू
एक चिपचिपा लेप बनकर
मेरे चारों ओर फैल गए
मैं उसी जगह चिपक गया जहाँ गिरा था ।
उसके बाद कई लोग आए
जिन्होंने मुझे उठाने का भरसक प्रयास किया
पर मैं आज तक उठ नही सका ।
सब लौट गए
पर मैं अब भी वहीं पड़ा हूँ
वहीं जहाँ तुमने झटक के मुझे गिराया था ।
अमित 'मौन'
मर्मस्पर्शी रचना
ReplyDeleteधन्यवाद आपका
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteधन्यवाद आपका
Deleteहार्दिक धन्यवाद आपका
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