Sunday, 11 March 2018

अपनी बारी का इंतज़ार- apni baari ka intezaar

हर रोज टूटे अरमानों को हम रफ़ू करते हैं
रात ख्वाबों में फिर उन्ही से गुफ़्तगू करते हैं

चाहत तो थी आफताब से नजरें मिलाने की
अभी दर्द-ए-तन्हाई में मगर अंधेरों से डरते हैं

समंदर में गोते लगाने को यूँ तो बेताब हम हैं
अभी साहिल पे खड़े रोज लहरों से झगड़ते हैं

हौसलों का क्या इन्हें आसमान छोटा लगता है
ये जो पंख बढ़ गये हैं इन्हें हम रोज कतरते हैं

चेहरा जो देखा है उसे मेरा ना समझो अभी
मतलबी दुनिया में हम भी नकाब बदलते हैं

ना जाने किस रोज मिल जाये मंजिल मेरी
अभी 'मौन' खड़े बारी का इंतज़ार करते हैं

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