हर रोज टूटे अरमानों को हम रफ़ू करते हैं
रात ख्वाबों में फिर उन्ही से गुफ़्तगू करते हैं
चाहत तो थी आफताब से नजरें मिलाने की
अभी दर्द-ए-तन्हाई में मगर अंधेरों से डरते हैं
समंदर में गोते लगाने को यूँ तो बेताब हम हैं
अभी साहिल पे खड़े रोज लहरों से झगड़ते हैं
हौसलों का क्या इन्हें आसमान छोटा लगता है
ये जो पंख बढ़ गये हैं इन्हें हम रोज कतरते हैं
चेहरा जो देखा है उसे मेरा ना समझो अभी
मतलबी दुनिया में हम भी नकाब बदलते हैं
ना जाने किस रोज मिल जाये मंजिल मेरी
अभी 'मौन' खड़े बारी का इंतज़ार करते हैं
No comments:
Post a Comment