पृथ्वी को चोट पहुँचाने वाली हर त्रासदी की वजह एक आह बनी। आह जिस किसी भी जीव के भीतर से निकली, उसका असर उतना ही भयावह रहा जितना एक बदले की भावना का होता है।
नावों के तलों से घायल हुई मछलियों के आँसू बाढ़ बनकर कितने ही किनारों को निगल गए।
आसमान में शोर करते जहाजों से डरकर जितने भी पक्षियों ने पंख गंवाए उन सभी ने साथ मिलकर उड़ान भरी तो आँधी बनकर सबको अपने साथ उड़ा ले गए।
जंगलों की कटाई से बेघर हुए सभी कीड़ों ने एकजुट होकर ऐसा विष बनाया जो वायरस बनकर कितनों को ज़मीदोज़ कर गया।
अनगिनत लाशों के ढेर पर चढ़कर सम्राट बने हर राजा को उसकी क़ीमत ऐसे ही किसी हमले में हारकर और फ़िर मृत्यु को प्राप्त कर चुकानी पड़ती है।
अमित 'मौन'
बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteविश्व पुस्तक दिवस और धरा दिवस की बधाई हो।
धन्यवाद आपका
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार(२५-०४-२०२०) को 'पुस्तक से सम्वाद'(चर्चा अंक-३६८२) पर भी होगी
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
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अनीता सैनी
हार्दिक आभार आपका
Deleteजंगलों की कटाई से बेघर हुए सभी कीड़ों ने एकजुट होकर ऐसा विष बनाया जो वायरस बनकर कितनों को ज़मीदोज़ कर गया।
ReplyDeleteआह लग गयी मानवता पर....
बहुत सुन्दर सार्थक सृजन
हार्दिक धन्यवाद आपका
Deleteबिलकुल सही कहा आपने ,उनकी आहों का असर ही है ये ,सादर नमन
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आपका
Deleteसत्य वचन ।
ReplyDeleteधन्यवाद आपका
Deleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteधन्यवाद आपका
Deleteगहन चिंतन परक रचना।
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका
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