कभी कभी ये जीवन एक आखेट की भाँति प्रतीत होता है और मैं ख़ुद को एक असफल आखेटक के रूप में पाता हूँ। मेरी चाहतें, मेरी ख़्वाहिशें, मेरा लक्ष्य एक मृग की भाँति है। एक ऐसा मृग जो दिखाई तो देता है पर जब मैं उसे पकड़ने जाता हूँ तब वो गायब हो जाता है। मैं वर्षों से उसके पीछे भाग रहा हूँ पर आज तक वो मेरे हाथ नही आया।
वो दिखता है, मैं उसके पीछे भागता हूँ। अचानक से कोहरा छा जाता है। कोहरा छटता है, मृग गायब है। मैं फ़िर ढूंढ़ता हूँ, वो फ़िर दिखता है। अचानक से बारिश आती है, मैं पेड़ की ओट में खड़ा हो जाता हूँ। बारिश रुकती है, मृग गायब है।
मैं फ़िर ढूंढ़ता हूँ, वो फ़िर दिखता है। मैंने सोच लिया है अबकी बार बारिश आए या तूफ़ान, मैं नही रुकने वाला। अब इसे नही जाने दूँगा। वो आगे-आगे भाग रहा है, मैं पीछे-पीछे। मेरे रास्ते में कई सुंदर फ़ूल खिले हैं, कई स्वादिष्ट फ़ल पेड़ों पर लदे हुए हैं, उधर एक प्यारा सा ख़रगोश शायद मेरी तरफ देख रहा है। पर मैं कुछ नही देख रहा। मेरी नज़रें सिर्फ़ और सिर्फ़ उसी मृग पर हैं। वो बस हाथ आने ही वाला है। अचानक मेरे रास्ते में गड्ढा आता है, जिसे मैं देख नही पाता। मैं गिर जाता हूँ, मुझे चोट लगती है, खून निकलता है। मैं घाव साफ करके फ़िर उठता हूँ और देखता हूँ....मृग फ़िर गायब।
मैं थक गया हूँ, निराश भी हूँ, सोचता हूँ क्या मुझे रुक जाना चाहिए? क्या मुझे इस उपवन की सुंदरता का आनंद लेना चाहिए? फ़िर सोचता हूँ कि नहीं मैं रुक नही सकता, मैं तो इंसान हूँ। मैं बिना संतुष्ट हुए कैसे रुक सकता हूँ।
संतुष्टि की चाह इंसान को उम्र भर सिर्फ़ भगाती और थकाती है पर संतुष्टि कभी मिल नही पाती।
अमित 'मौन'
जीवन और प्रकृति का सामंजस्य। सुन्दर।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद आपका
Deleteबहुत सुन्दर।
ReplyDeleteआभार आपका
Deleteसादर नमस्कार,
ReplyDeleteआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 02-10-2020) को "पंथ होने दो अपरिचित" (चर्चा अंक-3842) पर होगी। आप भी सादर आमंत्रित है.
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"मीना भारद्वाज"
हार्दिक आभार आपका
Deleteइसीलिए तो यह मृगमरीचिका है अमित जी
ReplyDeleteजी सही कहा आपने... धन्यवाद
Deleteजब संतुष्टि का सूत्र ज्ञात हो जाता है तो ही संतुष्टि मिलती है । अन्यथा केवल अहंकार को भरा जाता है मृग को रूपक बनाकर ।
ReplyDeleteजी बिल्कुल सही... धन्यवाद आपका
Deleteहार्दिक धन्यवाद आपका
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