कितनी ही दीवारें हैं
जिन्हें घर होने का इंतज़ार है
और मुसाफ़िर हैं कि
बस भटकते हुए दम तोड़ रहे हैं
जाने कितना ही वक़्त
खोजते हुए खर्च कर दिया
पर जो ढूँढ़ लिया
उसे संभालने का समय नही मिला
जल्द पहुँचने की ख़्वाहिश लिए
सुकून भरी छाँव छोड़ते रहे
पर कौन जाने इस लंबे सफ़र में
कोई और पेड़ मिले ना मिले
हम भागने के इतने आदी हो गए
कि रुकने को अस्थिरता समझने लगे
जबकि इस भाग-दौड़ का मक़सद
एक स्थायी पते की तलाश था
मन को इच्छाओं का ग़ुलाम बना लेना
अपने शरीर के साथ क्रूरता करना है।
अमित 'मौन'