वो कविता सी स्वच्छंद सदा
मैं ग़ज़लों सा लयबद्ध रहूँ
वो प्रेम त्याग की परिभाषा
मैं उसके लिये निबंध रहूँ
वो चाँद सी एक लालिमा लिये
मैं तारों सा बिखरा ही रहूँ
वो नदियों सी हर ओर बहे
मैं सागर सा ठहरा ही रहूँ
वो नाज़ुक कली जो फूल बने
मैं पौधे सा बढ़ता ही रहूँ
वो मस्त हवा के झोंके सी
मैं आँधी सा चलता ही रहूँ
वो मंद मंद मुस्कान लिये
मैं बिना वजह हँसता ही रहूँ
वो पहली बारिश सावन की
मैं ख़ुशबू बन मिट्टी में रहूँ
वो गंगा सी निर्मल पावन
मैं संगम बन के साथ रहूँ
वो चहुँ दिशाओं फैली हो
मैं मध्य धुरी बन जुड़ा रहूँ
वो तितली बन जब मंडराये
मैं गुलमोहर का फूल रहूँ
वो मधुमखी का छत्ता हो
मैं उन पेड़ों की डाल रहूँ
वो ठंड की कोई ठिठुरन हो
मैं जलता हुआ अलाव रहूँ
वो गौरैया जिन बागों की
मैं घने पेड़ की छाँव रहूँ
वो कोयल जैसी कूक लिये
मैं बगुले सा बस शांत रहूँ
वो जुगनू बन चमके जब भी
मैं स्याह अँधेरी रात रहूँ
वो छोर बने इस पृथ्वी का
मैं नील गगन बन साथ रहूँ
वो जंगल का एक झरना हो
मैं ऊँचा कोई पहाड़ रहूँ
वो ओस की पहली बूँद बने
मैं हरी घास बन उगा रहूँ
वो मन मंदिर की मूरत हो
मैं सजदे में बस झुका रहूँ
वो सात सुरों के सरगम सी
मैं उसको सुन बस 'मौन' रहूँ
By - Amit Mishra 'मौन'
आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' २८ मई २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
ReplyDeleteटीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
जी हार्दिक आभार आपका
Deleteबहुत सुन्दर अंतर खोज के कविता के छंद बांधे हैं ... लाजवाब ...
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आपका
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद आपका
Deleteबहुत सुंदर रचना कोमल निर्मल ।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आपका
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