Monday, 23 July 2018

मौन भला हूँ

मैं  गुलों के  जैसा महकता  नही हूँ
सितारा हूँ लेकिन चमकता नही हूँ
ज़माना ये समझे कि खोटा हूँ सिक्का
बाज़ारों  में  इनकी  मैं  चलता नही हूँ
यूँ  तो अंधेरों  से  जिगरी  है  यारी
मैं ऐसा हूँ सूरज की ढलता नही हूँ
सफ़र पे जो निकला तो मंज़िल ज़रूरी
यूँ  राहों  में   ऐसे  मैं   रुकता  नही  हूँ
उम्मीद-ए-वफ़ा  ने है तोड़ा  मुझे भी
मैं आशिक़ के जैसा तड़पता नही हूँ
कोशिश में ज़ालिम की कमी नही थी
मैं पहले ही राख  हूँ  जलता  नही  हूँ
मयखानों की रौनक है शायद मुझी से
मैं  कितना  भी पी लूँ  बहकता नही हूँ
सूरत  से  ज्यादा  मैं  सीरत  को चाहूँ
रुख़सारों पे चिकने फिसलता नही हूँ
मुसीबत से अक़्सर कुश्ती हूँ करता
है लोहा  बदन मेरा  थकता  नही हूँ
मिट्टी का बना हूँ जमीं से जुड़ा हूँ
खुले आसमानों में उड़ता  नही हूँ
हुनर पार करने का सीखा है मैंने
बीच भँवर अब मैं फंसता नही हूँ
'मौन'  भला  हूँ  ना  छेड़ो  मुझे  तुम
मैं यूँ ही किसी के मुँह लगता नही हूँ


No comments:

Post a Comment

अधूरी कविता

इतना कुछ कह कर भी बहुत कुछ है जो बचा रह जाता है क्या है जिसको कहकर लगे बस यही था जो कहना था झगड़े करता हूँ पर शिकायतें बची रह जाती हैं और कवि...