Thursday, 20 September 2018

ग़र इश्क़ का कोई सार लिखूं

ग़र इश्क़ का कोई सार लिखूं
उसको ही बारंबार लिखूं
जो प्रेमपाश का वर्णन हो
उसकी बाहों का हार लिखूं

कविता की पहली पंक्ति वो
जब लय में कोई गज़ल लिखूं
मैं एक सरोवर हो जाऊं
और उसको अपना कमल लिखूं

उसे अल्हड़ मस्त बयार कहूँ
मौसम की कोई बहार कहूँ
लिख दूँ बरखा की बूँद उसे
सावन का पहला प्यार लिखूं

ज्यों फूलों की नाज़ुक कलियाँ
भंवरे करते जब रंगरलियां
खिलते ग़ुल का वो नज़राना
संदल सी उसकी महक लिखूं

नदियों जैसी वो बल खाये
ज्यों सागर से लहरें आये
ठंडी शामों में साहिल पे
ना मिट पाये वो नाम लिखूं

वो मंद मंद जब मुस्काए
और लट ऊँगली से सुलझाए
उन अधरों से रस पान करूं
मैं यौवन का गुण गान लिखूं

वो जब जब पायल छनकाए
और साथ मे कंगन खनकाए
मैं उसका वो श्रृंगार लिखूं
अब मिलन को हूँ तैयार लिखूं

अब मिलन को हूँ तैयार लिखूं...

ग़र इश्क़ का कोई सार लिखूं
उसको ही बारंबार लिखूं....


2 comments:

अधूरी कविता

इतना कुछ कह कर भी बहुत कुछ है जो बचा रह जाता है क्या है जिसको कहकर लगे बस यही था जो कहना था झगड़े करता हूँ पर शिकायतें बची रह जाती हैं और कवि...