गहरा ज़ख़्म है दिखाऊं मैं कैसे
ये लंबा है क़िस्सा बताऊं मैं कैसे
सड़कें शहर की जकड़े हैं बैठी
वापस मेरे गाँव जाऊं मैं कैसे
सज़दे सनम के बहुत कर लिए
ख़ुदा रूठ बैठा मनाऊं मैं कैसे
शज़र ना कोई इस शहर में बचा
अब छत पे परिंदे बुलाऊं मैं कैसे
क़ज़ा पूछती है रज़ा अब मेरी
हाल कैसा है मेरा बताऊं मैं कैसे
झूठी हँसी की जो आदत पड़ी है
'मौन' हूँ रहता चिल्लाऊं मैं कैसे
बहुत सुंदर 👌👌
ReplyDeleteजी शुक्रिया आपका
Delete