मन सबसे बड़ा विद्रोही है। ये अक़्सर वही करना चाहता है जो दुनिया को लगता है कि नही करना चाहिए। पर ये दुनिया तो हमसे बनती है, और हम कौन हैं? हम मन के मालिक हैं। ये मन किसका है? हमारा।
बड़ी अजीब विडंबना है, मन के मालिक होते हुए भी हम अपने ही मन को मारते हैं, उस दुनिया के लिए जो हमने ही बनाई है। हम क़ातिल हैं, मैं क़ातिल हूँ।
पर मैं कौन हूँ? मैं तो ख़ुद का मालिक भी नही हूँ। मैं चार हिस्सों में बँटा हुआ हूँ। दिल, दिमाग़, मन और शरीर। इन चारों में लगभग सभी बातों में मतभेद रहता है। इन चारों के कारण मैं कभी पूरा मैं नही हो पाता।
वहाँ दूर उस दूसरे शहर में कोई रहता है। कोई कौन? कोई वही जिसे मैं अपनी ज़िंदगी कहता था। हाँ हाँ मैं यानी मेरे चारों हिस्से मिलकर उसे ज़िंदगी कहते थे। वो कुछ ऐसा था जिसके लिए चारों एकजुट हो गए थे।
पर क्या वो वाक़ई ज़िंदगी थी? अगर थी तो उसके दूर जाने के बाद भी मैं ज़िंदा कैसे हूँ? यानी वो ज़िंदगी नही थी, वो ज़िंदगी का एक हिस्सा थी। इसका मतलब हमारी ज़िंदगी भी हिस्सों में बँटी हुई है।
ख़ैर, अब ज़िंदगी का ये हिस्सा जहाँ मेरे चार हिस्सों में मतभेद है। यहाँ दिल असमंजस में है, दिमाग़ रोकता है, मन जाना चाहता है और शरीर इन तीनों के बीच होने वाले फैसले का इंतज़ार कर रहा है।
मेरे और ज़िंदगी के इतने हिस्सों के बीच मैं कहाँ हूँ? मैं तो हूँ ही नही और तब तक नही हूँ जब तक ये चारों एक नही हो जाते। फ़िर जो भी ये हो रहा है ये कौन कर रहा है? ये इन चारों में से कोई कर रहा है। इन चारों में से जिसका पलड़ा भारी होता है सब उसके मुताबिक़ हो जाता है।
ज़िंदगी के कुछ हिस्से अभी बाकी है, ज़िंदगी अधूरी है, मैं अधूरा हूँ, सब अधूरा है।
सबको इंतज़ार है किसी दिन पूरा होने का........
अमित 'मौन'
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteधन्यवाद आपका
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