रोज इसी वक़्त छत पर आओगी
तो पड़ोसी कानाफ़ूसी करेंगेपकड़ी तुम जाओगी
और शामत मेरी आएगी
बिन बात मुस्कुराती हो
बेवज़ह चौंक जाती हो
जो किसी को भी शक हुआ
अपनी जासूसी हो जाएगी
अब आ ही गयी हो
तो बालों को खुला छोड़ो
चूम के ऊँगली उछाली है मैंने
गालों से ज़ुल्फें हवा उड़ाएगी
रोज रोज चुनर लहराओगी
तो बादलों को तकलीफ़ होगी
वो गुस्से में बड़बड़ाएंगे
और बारिश हो जाएगी
इन बालियों को कहो
इतना भी ना चमकें
कहीं सूरज जल गया अगर
मोहल्ले में रोशनी ना आएगी
यूँ जोर जोर गुनगुनाओगी
तो कोयल को रश्क़ होगा
वो बिगड़ी तो महीनों तक
फ़िर प्रेम गीत ना सुनाएगी
सोचो किसी शाम ऐसा भी हो
तुम आओ और मैं ना मिलूँ
बमुश्किल रात कटेगी तुम्हारी
बेचैनी रहेगी, नींद नही आएगी
मैंने तो लिख दी है कविता
अब तुम भी एक चिट्ठी लिखो
कब तक तुम्हारे दिल का हाल
मुझसे तुम्हारी सहेली बताएगी।
अमित 'मौन'
इन बालियों को कहो
ReplyDeleteइतना भी ना चमकें
कहीं सूरज जल गया अगर
मोहल्ले में रोशनी ना आएगी
क्या बात .... यानि आपको विश्वास कि वो अपनी सहेली को बताती होगी हालेदिल ....
हार्दिक धन्यवाद आपका
Deleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteअन्तर्राष्ट्रीय मूर्ख दिवस की बधाई हो।
जी धन्यवाद आपका
Deleteसुन्दर सृजन ।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद आपका
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteजी धन्यवाद आपका
Deleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति।
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