हम जैसे जैसे आगे बढ़ते जाते हैं वैसे वैसे हमारे आस पास की भीड़ कम होती जाती है क्योंकि हर कोई उस दुर्गम रास्ते पर चल नही पाता या यूँ कहें कि किस्मत उन्हें बढ़ने नही देती। आगे जाते जाते बस गिनती के लोग बचते हैं और वो भी ऐसे लोग जिन पर बस किसी तरह आगे निकलने का जुनून रहता है। उन्हें साथी मुसाफ़िरों से कोई सहानुभूति या मतलब नही होता। वो बस किसी तरह वहाँ पहुँचना चाहते हैं जहाँ पहुँचने का सपना हर कोई देख रहा होता है।
उस जगह जाकर या यूँ कहें कि सफ़र के उस मुक़ाम पर पहुंचकर आप इतने अकेले हो जाते हैं कि अगर चलते चलते आप थक कर गिर भी पड़े तो कोई उठाने के लिए नही रुकता क्योंकि वो जानता है कि अगर वो रुका तो वो पीछे रह जाएगा। इसीलिए आपको ख़ुद ही ख़ुद को उठाना पड़ता है। चोट पर मलहम लगाना पड़ता है और फ़िर से चलना पड़ता है। चलते चलते और गिरते गिरते आपके शरीर पर कितने ही घाव पड़ जाते हैं पर वो घाव आप किसी को दिखाना नही चाहते। शायद आपको लगता है कि इससे लोग आपको कमजोर समझने लगेंगे। आपकी शारीरिक और मानसिक क्षमता क्षीण हो चुकी होती है पर आप उसे नजरअंदाज करते हुए बढ़ते चले जाते हैं।
सफ़र में एक मुक़ाम ऐसा भी आता है जब लोगों को लगता है कि आपने उस ऊँचाई को छू लिया है जिसे पाने के लिए आप बढ़े थे और आपको भी ऐसा दिखाना पड़ता है कि हाँ हाँ मैं बहुत ऊपर आ गया हूँ। आप ऊपर से हाथ हिलाते हैं और नीचे खड़े लोग आपके सम्मान में तालियाँ बजाते हैं और उम्मीद करते हैं कि आप और ऊपर जाएंगे।
आपको ऊपर से नीचे देखने में डर भी लगता है पर आप उस डर के बारे में नीचे वालों को नही बता सकते क्योंकि आपको सम्मान खो देने का भी डर होता है। आप उसी सम्मान और उम्मीद के बोझ तले दबे हुए और आगे बढ़ते चले जाते हैं। और फ़िर जितनी दूरी आप तय करते हैं उतना ही बड़ा अकेलापन का घेरा आपके इर्द गिर्द बनता चला जाता है। आगे बढ़ते बढ़ते आप थक चुके होते हैं पर आप थक कर बैठ नही सकते क्योंकि फ़िर पीछे रह जाने का डर आपके साथ साथ चलने लगता है। आपके पीछे वाले आपके लिए तालियां बजा रहे होते हैं और आप उनको देख कर मुस्कुरा रहे होते हैं। पर उस मुस्कुराहट के परे आपके मन की उथल पुथल किसी को पता नही चल पाती क्योंकि आप किसी के साथ उसे बाँटना नही चाहते या बाँटने से डरते हैं।
इस डर, उम्मीद और अकेलेपन का एहसास शायद हमें बहुत देर से होता है और कभी कभी इतनी देर हो जाती है कि इनसे निज़ात पाने का मौका हमारे हाथ से निकल चुका होता है।
क्या ऐसा नही हो सकता कि जब हम गिरे और हमें चोट लगे तो हम थोड़ी देर और रुक जाएं। उस चोट के ठीक होने का इंतज़ार करें। क्यों ना हम सफ़र के दौरान चलते हुए ही लोगों से बात करें जो हमारे साथ या आस पास चल रहे हैं उनसे उनकी मुश्किलें पूछें और अपनी बताएं। उनसे दोस्ती बढ़ाएं ताकि एक दूसरे के गिरने पर कम से कम कोई उठाने वाला तो हो। क्यों ना हम अपनी चोटों को छुपाने के बजाय उन्हें दिखा कर उनका इलाज करवाएं।
क्यों ना हम उस सफ़र को तेज चलकर अधूरा छोड़ने की बजाय धीरे धीरे बढ़कर पूरा तय करें।
अमित 'मौन'
#depression #life #suicide #talks #friends
बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteधन्यवाद आपका
Deleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (16-6-2020 ) को "साथ नहीं कुछ जाना"(चर्चा अंक-3734) पर भी होगी, आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
हार्दिक आभार आपका
Deleteसहमत हूँ आपके लेखन से
ReplyDeleteधन्यवाद आपका
Deleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (16-6-2020 ) को "साथ नहीं कुछ जाना"(चर्चा अंक-3734) पर भी होगी,
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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लिंक खुलने में समस्या हुई इसकेलिए क्षमा चाहती हूँ ,मैंने अब सुधार कर दिया हैं।
कामिनी सिन्हा
इलाज के पहलू पर ध्यान देना सबसे जरूरी है।
ReplyDeleteजी बिल्कुल सही कहा आपने
Deleteबहुत ही सुंदर लेख आदरणीय सर .
ReplyDeleteधन्यवाद आपका
Deleteविचारणीय
ReplyDeleteधन्यवाद आपका
Deleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteधन्यवाद आपका
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