आज खोया आसमां है
काले मेघों से घिरा है
रोक दो इन बारिशों कोडूबी जाए अब धरा है।
आँसुओं की उठती लहरें
नयन का सागर भरा है
शूल बन कर चुभती यादें
घाव अब तक वो हरा है।
और फ़िर ऐसे समय में
आ बसी हो तुम हृदय में
अस्त होती हैं उम्मीदें
कोई रुचि है ना उदय में।
घटती साँसें पूछे मुझसे
वक्त कितना है प्रलय में
शून्य जीवन करके भी तुम
क्यों रुकी हो अब हृदय में।
क्यों रुकी हो अब हृदय में...
अमित 'मौन'
सुन्दर।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (26-08-2020) को "समास अर्थात् शब्द का छोटा रूप" (चर्चा अंक-3805) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुंदर सृजन, हृदय स्पर्शी।
ReplyDeleteमन की पीड़ा को शब्द दे दिए जैसे ...
ReplyDeleteगहरा भाव चिंतन ... ख़ुद से तरल वार्तालाप ... उदासी का भाव, टीस उठती है मन में जैसे ...
सुंदर रचना ...