विकसित और विकासशील बनने की होड़ के बीच मैंने खोजी बनना चुना। जहाँ लोग बातें बनाना सीख रहे थे वहीं मैं चुप रहकर बातों के मतलब खोजने में लगा रहा। जब आगे बढ़ने के लिए लोग आवाज़ को ताकत बना रहे थे तब मैं ख़ुद में सुनने की क्षमता को विकसित करने में लगा हुआ था।
ग़ुस्सैल और झल्लाई हुई कर्कश आवाज़ों को दरकिनार करते हुए उसके पीछे की वजह पहचान लेने की कला दुनिया की आधी से ज्यादा समस्याओं को ख़त्म कर सकती है।
पहले बोलने वाले अक़्सर सुनने वाले की रुचि से अवगत नही होते जबकि पहले सुनने वाला ये जान जाता है कि क्या नही बोलना चाहिए।
बोलते हुए हम कुछ गलत ना बोलने के दबाव में रहते हैं जबकि सुनते हुए हम अनसुना करने की आज़ादी अपने पास रखते हैं।
मानव को बोलने की अनोखी ताकत देते हुए ईश्वर ने कभी नही सोचा होगा कि यही शक्ति एक दिन अभिशाप बन जाएगी।
ये विडंबना ही है कि सब कुछ बोल सकने वाले मनुष्य एक दूसरे को सुनना नही चाहते जबकि वही मनुष्य एक ही तरह की आवाज़ निकालने वाले पक्षियों और झरनों की आवाज़ें सुनने के लिए लालायित रहते हैं।
कभी कभी हमारे पास कहने को कितना कुछ होता है पर कोई सुनने वाला नही होता। सुना ना जाना कह ना पाने से ज़्यादा दुखदायी होता है।
इस दुनिया को अब कहने वाले नही सुनने वालों की ज्यादा जरूरत है।
अमित 'मौन'
Welcome to my Blog. I write what i saw & learn from life. Because: जो पढ़ा किताबों में, अमल में लाऊं भी तो क्या, ये जिंदगी है जनाब, फलसफ़ों से नही चलती.... Suggestions/appreciations in comment box are always welcomed. You can also read my latest writing at the following link: www.yourquote.in/amitmaun
Monday, 4 January 2021
दुखदायी
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सुनने वाला सबसे बड़ा होता है :)
ReplyDeleteजी धन्यवाद आपका
Deleteवाह ! सुनने की कला जिसे आ जाए वह दुनिया की उलझनों से एक न एक दिन पार हो जाता है, मौन में ही असली राज छुपा है
ReplyDeleteजी बेहद शुक्रिया आपका
Deleteसार्थक लेख
ReplyDeleteधन्यवाद आपका
Deleteबहुत सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद आपका
Deleteबहुत सुन्दर।
ReplyDeleteबेहद शुक्रिया आपका
Deleteहार्दिक आभार आपका
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