Monday 4 January 2021

दुखदायी

विकसित और विकासशील बनने की होड़ के बीच मैंने खोजी बनना चुना। जहाँ लोग बातें बनाना सीख रहे थे वहीं मैं चुप रहकर बातों के मतलब खोजने में लगा रहा। जब आगे बढ़ने के लिए लोग आवाज़ को ताकत बना रहे थे तब मैं ख़ुद में सुनने की क्षमता को विकसित करने में लगा हुआ था।

ग़ुस्सैल और झल्लाई हुई कर्कश आवाज़ों को दरकिनार करते हुए उसके पीछे की वजह पहचान लेने की कला दुनिया की आधी से ज्यादा समस्याओं को ख़त्म कर सकती है।

पहले बोलने वाले अक़्सर सुनने वाले की रुचि से अवगत नही होते जबकि पहले सुनने वाला ये जान जाता है कि क्या नही बोलना चाहिए।

बोलते हुए हम कुछ गलत ना बोलने के दबाव में रहते हैं जबकि सुनते हुए हम अनसुना करने की आज़ादी अपने पास रखते हैं।

मानव को बोलने की अनोखी ताकत देते हुए ईश्वर ने कभी नही सोचा होगा कि यही शक्ति एक दिन अभिशाप बन जाएगी।

ये विडंबना ही है कि सब कुछ बोल सकने वाले मनुष्य एक दूसरे को सुनना नही चाहते जबकि वही मनुष्य एक ही तरह की आवाज़ निकालने वाले पक्षियों और झरनों की आवाज़ें सुनने के लिए लालायित रहते हैं।

कभी कभी हमारे पास कहने को कितना कुछ होता है पर कोई सुनने वाला नही होता। सुना ना जाना कह ना पाने से ज़्यादा दुखदायी होता है।

इस दुनिया को अब कहने वाले नही सुनने वालों की ज्यादा जरूरत है।

अमित 'मौन'

P.C. : GOOGLE


11 comments:

  1. सुनने वाला सबसे बड़ा होता है :)

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  2. वाह ! सुनने की कला जिसे आ जाए वह दुनिया की उलझनों से एक न एक दिन पार हो जाता है, मौन में ही असली राज छुपा है

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    1. जी बेहद शुक्रिया आपका

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  3. बहुत सुंदर प्रस्तुति

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    1. हार्दिक धन्यवाद आपका

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  4. हार्दिक आभार आपका

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