Monday, 13 August 2018

माहताब की लाली

माहताब की लाली को बादलों में छुपाया ना करो
यूँ  बेवजह  रूखसारों  पे जुल्फें  गिराया  ना करो

बाहों  के  घेरों  में सिमटो  तो  नज़रें  झुका लो
रंग-ए-हया के चिलमन से बाहर आया ना करो

गुफ़्तगू  वस्ल  की बेशकीमती खजाना है जानां
शब-ए-इश्क के किस्से सरेआम सुनाया ना करो

ग़ुरूर  चाँदनी  का  भी  अब  हवा  हो  चला
यूँ हर बार सितारों को आईना दिखाया ना करो

नीयत महबूब की  दगाबाज़ी पे उतर ना जाए
निगाहों के मयकदे में हर बार बुलाया ना करो

बोसों की बारीश से कुछ पल की राहत बख्शो
लबों से जकड़  हर बार 'मौन' बिठाया  ना करो


3 comments:

  1. वाह वाह
    एक एक शेर उम्दा है

    नीयत महबूब की दगाबाज़ी पे उतर ना जाए
    निगाहों के मयकदे में हर बार बुलाया ना करो


    आपका मेरे ब्लॉग पर स्वागत है

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  2. वाह बहुत खूबसूरत /उम्दा /बेहतरीन गजल।

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