मुल्क के सिपहसालारों को भी कुछ काम दिया जाए
सफेदपोशों को दग़ाबाज़ी का अब इनाम दिया जाए
ख़्वाहिशे अधूरी हैं जिनकी ये मुल्क बाँटने की
सर क़लम कर उनका मुक़म्मल मुक़ाम दिया जाए
जिहाद के बहाने कुछ लोग ज़न्नत ढूंढ़ रहे घाटी में
अब उन्हें भी उनके हिस्से का इंतक़ाम दिया जाए
ख़्वाब अधूरे हैं हिंद की ख़ातिर शहीद उन जवानों के
आओ मिल कर उनके सपनों को अंजाम दिया जाए
भगवे-हरे को मिला एक नया कफ़न बनाना है
मज़हबी ठेकेदारों को सुला कर आराम दिया जाए
काली रातों में पहाड़ बन जो खड़े हैं सरहदों पर
कभी उन्हें भी सुकून भरे सुबह शाम दिया जाए
सब कुछ तो दिया इस धरती ने हमें गुजारे ख़ातिर
अब फर्ज़ हमारा की इसे वतनपरस्त आवाम दिया जाए
बहुत हुआ 'मौन' रहना हर रोज सड़कों पे लहू देख
क्यूं ना नई नस्लों को एक बेहतर हिंदुस्तान दिया जाए
©अमित मिश्रा
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