सपनों की चादर और पलकों का पहरा
जो नैनों ने देखा वो तेरा था चेहरा
था जाड़ों का मौसम और रात सुहानी
एक भीनी सी ख़ुशबू ज्यों रात की रानी
वो चन्दा भी सोया था बादल के पीछे
एक तारे ने झांका भी आकर के नीचे
उन पेड़ों की शाखें भी कबसे जगी थी
फिर ठंडी हवाएँ भी बहने लगी थी
वो राहें भी बरसों से कितना जली थी
उस शब में तू जिनपे मुझसे मिली थी
वो मेरा था साया जो पीछे खड़ा था
मधुर मिलन को मैं आगे बढ़ा था
उस नदिया के पानी में अपनी परछाई
देखा जो ख़ुद को तू ख़ुद ही घबराई
तेरे नूर से रौशन वो रात हुई थी
लब ना खुले थे पर बात हुई थी
आँखों से सावन भी जमके था बरसा
उन बूँदों से पूछो मैं कितना था तरसा
पहिया समय का भी थम सा गया था
बदन में लहू भी तो जम सा गया था
क़िस्मत ने अपनी फिर धोखा दिया था
मिलने से हमको फ़िर रोका गया था
अज़ब सी एक आहट ने मुझको जगाया
आइना हक़ीक़त का मुझको दिखाया
मैं तो वहीं था पर तू जा चुकी थी
धड़कन बेक़ाबू थी सांसें रुकी थी
अब मैं हूँ, अंधेरा और मेरी तन्हाई
आज फिर से रुलाने तेरी याद आयी
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