आकर्षण एक नवजात शिशु की मानिंद होता है जो शुरू में तो बहुत निर्मल, निश्छल, प्यारा और मोहक लगता है क्योंकि वो अभी अभी हमारे जीवन में, हमारे परिवेश में या हमारे आस पास आया है, परंतु शनैः शनैः हमारा यह मोह भंग होने लगता है क्योंकि अब हम उसे निरंतर अपने आस पास पाते हैं...उसकी सभी बातें, सभी हाव भाव, सभी खेल जो हमारे लिए कभी नये थे अब वो रोजमर्रा की बातें हो गई हैं अब कुछ भी नया नही रहा और इस प्रकार उस आकर्षण का भी एक दिन अंत हो जाता है...
पर क्या प्रेम ऐसा करता है या प्रेम में ऐसा होता है?
नही....।।
प्रेम का उदाहरण है मातृत्व....मातृत्व जो कभी उस शिशु को किसी कसौटी पर नही परखता..उसके लिए शिशु का होना ही सब कुछ है...एक माँ के लिए उसके बालक के सभी भाव, सभी खेल, सभी नादानियाँ आज भी उतनी ही प्रिय हैं जितनी उसके जन्म के समय थी....मातृत्व की संतुष्टि उसकी संतान के होने मात्र से ही है..एक माँ का मन अपने बालक को देख कर कभी नही भरता...उसे संतान की बदलती चंचलताओं, विचारों, रंग रूप, कद-काठी इत्यादि से कोई फर्क नही पड़ता...वो उसके बदलाव को स्वीकार करते हुए भी उतना ही प्रेम करती है या यूँ कहें बदलाव को स्वीकार करते हुए उसका प्रेम और भी प्रगाढ़ होता जाता है...
इसलिए अपने आकर्षण को प्रेम समझने से पहले एक बार जरूर विचार करें कि आप किसी व्यक्ति से प्रेम करते हैं या उसके व्यक्तित्व से...क्योंकि किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व समय के साथ बदल भी सकता है तो क्या आप बदलाव को स्वीकार कर पाएंगे...
अमित 'मौन'
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 15/01/2019 की बुलेटिन, " ७१ वें सेना दिवस पर भारतीय सेना को ब्लॉग बुलेटिन का सलाम “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद आपका
Deleteसटीक
ReplyDeleteधन्यवाद आपका
Deleteप्रेम का विश्लेषण ....
ReplyDeleteआसान नहीं है प्रेम होने के बाद इस बात का विश्लेषण ...
जी सही कहा आपने
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