अक़्सर ही मैं दिल को अपने, ये समझाया करता हूँ
तू मरता है जिस पर पगले, मैं भी उस पर मरता हूँ
साँझ सवेरे उसी चौक पर, जाने मैं क्यों जाता हूँ
यार मेरे हों या हों दुश्मन, सबसे मैं छुप जाता हूँ
चौराहे पर बैठा अक़्सर, राह उसी की तकता हूँ
तू मरता है जिस पर पगले, मैं भी उस पर मरता हूँ
मीर से लेकर ग़ालिब तक, हाँ सबको मैंने पढ़ डाला
मुझको अब कंठस्थ हो गयी, बच्चन जी की मधुशाला
अपनी कोई नज़्म बना कर, पेश उसे ही करता हूँ
तू मरता है जिस पर पगले, मैं भी उस पर मरता हूँ
फूलों की किस्मों को मैंने, थोड़ा थोड़ा पहचाना
काँटों में भी गुल खिलते हैं, अब जाकर मैंने जाना
कीचड़ में जा जाकर अब मैं, कमल चुराया करता हूँ
तू मरता है जिस पर पगले, मैं भी उस पर मरता हूँ
रोज शाम को बादल में अब, रंग दिखाई देते हैं
कोयल की कू कू में मुझको, गीत सुनाई देते हैं
अँगने में ना मुझको ढूँढ़ो, मैं छत पर ही रहता हूँ
तू मरता है जिस पर पगले, मैं भी उस पर मरता हूँ
बादल से मैं करूँ गुज़ारिश, बारिश जल्दी ले आना
फूलों से मैं करूं सिफ़ारिश, बगिया ऐसी महकाना
भँवरे से गाने सुन कर, तितली से बातें करता हूँ
तू मरता है जिस पर पगले, मैं भी उस पर मरता हूँ
कँगना, झुमका, पायल, बिंदिया, सारे तोहफ़े लाऊँगा
चाँद सितारे रश्क करेंगे, मैं ख़ुद ही उसे सजाऊँगा
नज़र कहीं ना लगे जहां की, अब मैं डरता रहता हूँ
तू मरता है जिस पर पगले, मैं भी उस पर मरता हूँ
अक़्सर ही मैं दिल को अपने, ये समझाया करता हूँ
तू मरता है जिस पर पगले, मैं भी उस पर मरता हूँ
अमित 'मौन'
तू मरता है जिस पर पगले, मैं भी उस पर मरता हूँ
साँझ सवेरे उसी चौक पर, जाने मैं क्यों जाता हूँ
यार मेरे हों या हों दुश्मन, सबसे मैं छुप जाता हूँ
चौराहे पर बैठा अक़्सर, राह उसी की तकता हूँ
तू मरता है जिस पर पगले, मैं भी उस पर मरता हूँ
मीर से लेकर ग़ालिब तक, हाँ सबको मैंने पढ़ डाला
मुझको अब कंठस्थ हो गयी, बच्चन जी की मधुशाला
अपनी कोई नज़्म बना कर, पेश उसे ही करता हूँ
तू मरता है जिस पर पगले, मैं भी उस पर मरता हूँ
फूलों की किस्मों को मैंने, थोड़ा थोड़ा पहचाना
काँटों में भी गुल खिलते हैं, अब जाकर मैंने जाना
कीचड़ में जा जाकर अब मैं, कमल चुराया करता हूँ
तू मरता है जिस पर पगले, मैं भी उस पर मरता हूँ
रोज शाम को बादल में अब, रंग दिखाई देते हैं
कोयल की कू कू में मुझको, गीत सुनाई देते हैं
अँगने में ना मुझको ढूँढ़ो, मैं छत पर ही रहता हूँ
तू मरता है जिस पर पगले, मैं भी उस पर मरता हूँ
बादल से मैं करूँ गुज़ारिश, बारिश जल्दी ले आना
फूलों से मैं करूं सिफ़ारिश, बगिया ऐसी महकाना
भँवरे से गाने सुन कर, तितली से बातें करता हूँ
तू मरता है जिस पर पगले, मैं भी उस पर मरता हूँ
कँगना, झुमका, पायल, बिंदिया, सारे तोहफ़े लाऊँगा
चाँद सितारे रश्क करेंगे, मैं ख़ुद ही उसे सजाऊँगा
नज़र कहीं ना लगे जहां की, अब मैं डरता रहता हूँ
तू मरता है जिस पर पगले, मैं भी उस पर मरता हूँ
अक़्सर ही मैं दिल को अपने, ये समझाया करता हूँ
तू मरता है जिस पर पगले, मैं भी उस पर मरता हूँ
अमित 'मौन'
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (22 -06-2019) को "बिकती नहीं तमीज" (चर्चा अंक- 3374) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
बेहद शुक्रिया आपका
Deleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteशुक्रिया आपका
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