मैं चाहूँ तुझे ही, ये कैसे बताऊँ
जो पढ़ के ना समझे तो कैसे जताऊँ
देखूँ तुझे तो मैं, ख़ुद ही को भूलूँ
यूँ चेहरे से नज़रें मैं कैसे हटाऊँ
ना दूरी कोई, रह गयी दरमियाँ है
है सूरत बसी दिल में कैसे दिखाऊँ
आँखें जो मूंदूँ, तू ही सामने हो
मैं ख़्वाबों में अपने तुझे ढूँढ़ लाऊँ
सोहबत की चाहत, बड़ा कोसती है
ये दूरी है दुश्मन ये कैसे मिटाऊँ
ये शब्दों की माला, तुझे करके अर्पण
कविता में अपनी मैं तुझको सजाऊँ
अमित 'मौन'
सादर आभार आपका....जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं आपको
ReplyDeleteबहुत सुंदर अर्पण ,समर्पण आपके सृजन से ।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आपका
Deleteवाह वाह क्या माला पिरोई है शब्दों की | बहुत ही कमाल बहुत ही अनुपम |
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आपका
Deleteहार्दिक आभार आपका
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