Friday 18 October 2019

था कौन मेरा? क्या अपना था?

शिथिल पड़ी इच्छाओं को
सहसा ही कोई उछाल गया
था कौन मेरा? क्या अपना था?
क्यों अपनी आदत डाल गया

बंजर बस्ती सूनी गलियां
बरसों से बरखा को तरसी
डेरा डाले पतझड़ बैठा
ना बूंदें सावन में बरसी
आँगन की सूखी तुलसी में
क्यों फ़िर से जल वो डाल गया

था कौन मेरा? क्या अपना था?
क्यों अपनी आदत डाल गया

ना कोई रोशनी दाख़िल हो
अंधेरे कमरों के भीतर
ना चिड़िया भी आना चाहे
जिस घर में रहते हो तीतर
क्यों बेरंगी दीवारों को फ़िर
रंग के ऐसे लाल गया

था कौन मेरा? क्या अपना था?
क्यों अपनी आदत डाल गया

सपनों की ऊँची दीवारें
वो जाने कैसे लांघ गया
अब क्यों इस दिल के मंदिर में
आशा की घंटी बांध गया
ग़र आया था मेरा होने
क्यों अपने रंग में ढाल गया

था कौन मेरा? क्या अपना था?
क्यों अपनी आदत डाल गया

क्यों अपनी आदत डाल गया....

अमित 'मौन'

6 comments:

  1. जी नमस्ते,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (१८-१०-२०१९ ) को " व्याकुल पथिक की आत्मकथा " (चर्चा अंक- ३४९३ ) पर भी होगी।
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।

    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    ….
    अनीता सैनी

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    1. अनीता जी, हार्दिक आभार आपका

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  2. मन के घोर निराशा के बीच भी कोई न कोई उम्मीद बाकी रहती है, तभी तो कोई आकर एक हल्की रौशनी दे जाता है
    बहुत अच्छी मर्मस्पर्शी रचना

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    1. कविता जी, बहुत बहुत धन्यवाद आपका

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  3. कोई अपना बनाकर पराया कर जाता है।
    प्रेम की ये छोटी सी कहानी हर किसी के जिंदगी की व्हाट लगा रही है।
    मर्मस्पर्शी।

    मेरी नई पोस्ट पर आपका स्वागत है 👉👉  लोग बोले है बुरा लगता है

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    1. Rohitash जी, बहुत बहुत धन्यवाद आपका

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