कितनी ही दीवारें हैं
जिन्हें घर होने का इंतज़ार है
और मुसाफ़िर हैं कि
बस भटकते हुए दम तोड़ रहे हैं
जाने कितना ही वक़्त
खोजते हुए खर्च कर दिया
पर जो ढूँढ़ लिया
उसे संभालने का समय नही मिला
जल्द पहुँचने की ख़्वाहिश लिए
सुकून भरी छाँव छोड़ते रहे
पर कौन जाने इस लंबे सफ़र में
कोई और पेड़ मिले ना मिले
हम भागने के इतने आदी हो गए
कि रुकने को अस्थिरता समझने लगे
जबकि इस भाग-दौड़ का मक़सद
एक स्थायी पते की तलाश था
मन को इच्छाओं का ग़ुलाम बना लेना
अपने शरीर के साथ क्रूरता करना है।
अमित 'मौन'
बहुत गहन भाव उकेरे हैं आपने।
ReplyDeleteसादर।
हार्दिक धन्यवाद आपका
Deleteसच मं भागने के आदी हो गये हैं हम.
ReplyDeleteजी धन्यवाद आपका
Deleteवाकई भागम भाग ज़िन्दगी के आदी हो चले हैं । अच्छी प्रस्तुति ।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद आपका
Deleteवाकई वह स्थायी ठिकाना मिल जाए तो बात बन जाए
ReplyDeleteजी धन्यवाद आपका
Deleteबहुत खूब लिखा अमित जी, कि ...जल्द पहुँचने की ख़्वाहिश लिए
ReplyDeleteसुकून भरी छाँव छोड़ते रहे
पर कौन जाने इस लंबे सफ़र में
कोई और पेड़ मिले ना मिले..वाह
जी हार्दिक धन्यवाद आपका
Deleteबहुत सुंदर रचना।
ReplyDeleteजी धन्यवाद आपका
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteबेहद शुक्रिया आपका
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ReplyDeleteसुंदर रचना!
हम भागने के इतने आदी हो गए
कि रुकने को अस्थिरता समझने लगे
जबकि इस भाग-दौड़ का मक़सद
एक स्थायी पते की तलाश था।
ब्रजेंद्रनाथ
जी हार्दिक धन्यवाद आपका
Deleteहार्दिक आभार आपका
ReplyDeleteबहुत खूब अमित जी,
ReplyDeleteधन्यवाद आपका
Deleteबहुत सुंदर।
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