और शिष्टाचार में पूछ ही लिया
कैसे हो?
जवाब में ठीक हूँ कहने की हिम्मत
चाहकर भी नही जुटाई जा सकी
क्योंकि ठीक वैसा अब कुछ भी नही
हम जानते थे कि
तितलियों के पंख तोड़ लिए गए हैं
उपवन के पक्षी अब उड़ना भूल चुके हैं
झरनों में पानी की जगह अब काई ने ले ली है
और रातों में अब सिर्फ चमगादड़ बचे हैं
हम महसूस कर सकते थे कि
नसों में लहू अब आहिस्ता दौड़ा करता है
हृदय की गति अब मंद पड़ गयी है
घड़ी की सुइयों ने घूमना छोड़ दिया है
और लौटने के सभी रास्तों पर
नया शहर बसाया जा चुका है
फ़िर भी हम सलीके से मुस्कुराए
और अपने असहाय होंठों को
बचा लिया एक और झूठ के पाप से ।
अमित 'मौन'
बहुत सुंदर
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 18.02.2021 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा| आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी
ReplyDeleteधन्यवाद
सुन्दर प्रस्तुति ।
ReplyDeleteबहुत खूब ...
ReplyDeleteजीवन में बदलाव आता है और कई बार झूठ से बचने के तरीके ढूँढना भी मुश्किल हो जाता है ... गहरी अभिव्यक्ति ...
बहुत सुन्दर और सारगर्भित रचना।
ReplyDeleteएक और झूठ के पाप से बच गए । बढ़िया प्रस्तुति ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना। बधाई।
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