गीता ग्रंथ सी होती है ये अंतरात्मा
हमेशा अच्छे बुरे का उपदेश देती हुई
पर मन अक़्सर दुर्योधन सा आतुर
जो सोच लिया वो करके ही मानता है
हर चोर जानता है चोरी के पाप को
फ़िर भी वो करता रहता है चोरियाँ
क्योंकि पाप और प्रायश्चित के बीच
उसे फल चुनना आसान लगता है
जन्म से हम जानवर होंगे या मानव
ये कभी भी हमारे हाथ में नही होता
जन्म पाने के लिए कर्म नही कर सकते
पर जन्म के बाद अपना कर्म चुन सकते हैं
ये जानते हुए भी कि जीव हत्या पाप है
साँप को विष और शेर को दाँत क्यों ?
क्योंकि अस्तित्व की जद्दोजहद को
पाप पुण्य की तराजू में नही रखा जाता
सुख दुःख बादल हैं, आते जाते रहेंगे
पर संतुष्टि की छाँव हम स्वयं ढूँढ़ते हैं
हमें परिस्थितियाँ चुनने की आज़ादी नही
पर हम निर्णय के लिए सदैव स्वतंत्र हैं
मानवता स्वयं में एक ऐसा धर्म है
जिसका ईश्वर और प्रजा हम ही हैं
हम ही चोट देंगे हम ही दर्द सहेंगे
हम ही दुनिया बनाएंगे हम ही रहेंगे
जीवन एक खेल है जो हम खेलते हैं
यहाँ खिलाड़ी भी हम और दर्शक भी
अच्छाई और बुराई दो अलग दल हैं
हमें पक्ष चुनना और खेलना भर है
- अमित 'मौन'
बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद आपका
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार ४ जून २०२१ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
हार्दिक आभार आपका
Deleteगहन सृजन
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद आपका
Deleteबुरा करते वक्त पता होता है कि ये काम बुरा है।
ReplyDeleteअर्थपूर्ण रचना
हार्दिक धन्यवाद आपका
Deleteसटीक रूपकों के साथ पक्ष को रखा है ।।गहन अर्थ वाली रचना ।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आपका
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