अक्सर ऐसा होता है कि जब हम बहुत कुछ खो देते हैं तब हमारे अंदर पाने की लालसा मर जाती है। ये समय ऐसा होता है कि हम जीने का मकसद ही खो देते हैं। लड़ने की हिम्मत होते हुए भी हम हथियार जमीन पर रख देते हैं। लड़ने का मजा तब तक ही है जब तक जीतने की जिद जिंदा हो। पर जब मन हार मान ले तो शरीर को युद्ध में भेजने का कोई फ़ायदा नही।
मृतक सिर्फ वो नही जिसकी साँसें ख़त्म हो गयी हों। मरा हुआ वो भी है जिसके जीवन का कोई उद्देश्य ना हो।
सुना है जब शरीर बोझ बन जाए तो साँसें बहुत जल्दी साथ छोड़ देती हैं। पर कुछ तो है जो ये डोर टूटने नही दे रहा और मैंने उस कुछ को उम्मीद का नाम दे दिया है।
क्योंकि एक उम्मीद ही है जो इंतज़ार की उम्र लम्बी कर सकती है।
अमित 'मौन'
कशमकश है जिंदगी की। बखूबी बयाँ किया है आपने।
ReplyDeleteजी धन्यवाद आपका
Deleteसही कहा बस उम्मीद !!!
ReplyDeleteऔर ये उम्मीद ही है जो हारकर भी हारने नहीं देती मर कर भी जिंदा रखती है...
लाजवाब।
हार्दिक धन्यवाद आपका
Deleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (20-12-2021 ) को 'चार दिन की जिन्दगी, बाकी अंधेरी रात है' (चर्चा अंक 4284) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:30 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
हार्दिक आभार आपका
Deleteबेहतरीन भावाव्यक्ति।
ReplyDeleteसादर।
हार्दिक धन्यवाद आपका
Deleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteजी धन्यवाद आपका
Deleteस्कारात्मक सोच का बीजवपन करती खूबसूरत सचित्र अभिव्यक्ति ।हार्दिक बधाई और आभार । इस चित्र को मैं फ़ेस बुक पर सांझा करने जा रहा हूँ।
Deleteजी धन्यवाद आपका
Deleteउत्प्रेरक अभिव्यक्ति , साधुवाद अमित मौन
ReplyDeleteजी धन्यवाद आपका
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