उम्मीदें:
हौसलों की कुछ स्वरचित कहानियाँ पढ़ने के बाद कभी कभी हम इतने ज्यादा आशावादी हो जाते हैं कि हमें लगने लगता है कि हम भरी बरसात में उफ़नती नदी के बहाव को मिट्टी डाल कर रोक सकते हैं और हम ऐसा करने भी लगते हैं!
मगर बार बार मिट्टी डालने के बाद जब वो हर बार तेज बहाव के दबाव में आकर बह जाती है तब जाकर हमें एहसास होता हैं कि हमनें मिट्टी से उम्मीदें कुछ ज्यादा ही लगा ली थी!
प्रेम कथाओं को पढ़कर हम अक़्सर यही गलती दोहराते हैं और फिर उम्मीदों के साथ साथ हम ख़ुद भी टूट जाते हैं!
अमित 'मौन'
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (30 -06-2019) को "पीड़ा का अर्थशास्त्र" (चर्चा अंक- 3382) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
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अनीता सैनी
हार्दिक आभार आपका
Deleteबहुत सटीक और सार्थक।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आपका
Deleteसही कहा
ReplyDeleteशुक्रिया आपका
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